Thursday 30 May 2013

माली और पौधे...

कुछ पोस्ट या रचनाओं को पढ़कर लगता है कि सिर्फ तारीफ या आलोचना से बात नहीं बनेगी। यहां तो बात तो संवाद करने से ही आगे बढ़ती है। विशेषकर जब बात नजरिए और सोच में बदलाव की हो रही हो। जिसका पोषण लंबे समय तक हमारी सामाजिक जड़ों (संबंधों और रिश्तों ) के द्वारा बड़ी गहराई से किया जाता है। जिसको समाज रूपी पाठशाला के साथ-साथ स्कूल और कॉलेजों का व्यापक सर्मथन प्राप्त होता है।

जहां इसी ,सामाजिक पाठशाला में निर्मित लोग मौजूद होते हैं। जो परंपरा की जड़ों को हर संभव कोशिश करके बचाने की जुगत करते हैं। वे भले ही खोखली औऱ बेजान हो गई हों। वे नए सवालों से बचकर निकलने की कोशिश करते हैं। क्योंकि उनके तरकश के पुराने तीर तो कब के खत्म हो चुके होते हैं। इस कारण से यहां पर संवाद के रास्ते भी कमोबेश एकतरफा ही होते हैं। जिनसे कोई ठोस बात निकले की उम्मीद कम होती है। साहित्यकार स्वयं प्रकाश जी नें अपनें एक आलेख में कहा है कि अगर हमनें जिसमें उम्र और समझदारी के बीच सीधा संबंध होने की बात कहकर नए लोगों को दबाने का बेढब सा प्रयास दिखाई पड़ता है। 

जिनके ऊपर पेड़-पौधों के देखभाल की जिम्मेदारी हो अगर वे ही उसकी जड़ों में मट्ठा डालने लग जाएं तो पेड़-पौधों का बचना कठिन हो जाएगा। जो बचेंगे उनकी जिजीविषा (जीने की अदम्य इच्छा ) पर कोई संदेह नहीं होगा। यह और बात है। आखिरकार बात वहीं पर आकर टिकती है कि बिना सवाल-जवाब किए किसी निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा जा सकता है किसी बात को तमाम लोगों पर बिना उनकी सहमति लिए कैसे थोपा जा सकता है ?

भेदभावपूर्ण और अविवेकपूर्ण सोच व नजरिए की  कैद से  बाहर निकलने के लिए समाज रूपी पाठशाला के नियमों को संदेह की दृष्टि से देखने की कवायद भी करनी पड़ती है। उनको भी समीक्षा की कसौटी पर कसना होता है। तब कहीं जाकर इस तरह की तमाम पूर्वाग्रही मानसिकताओं के आवरण को हटाने में थोड़ी मदद मिलती है। चाहे वह महिलाओं के प्रति हो या बच्चों के प्रति। इसके साथ एक बात और जोड़ना चाहुंगा कि बड़े स्तर का सवाल होने के साथ-साथ यह निहायत व्यक्तिगत मामला भी बन जाता है।

अगर किसी को अमुक समाजीकरण (कोई भी सामाजिक मान्यता जो विवेकपूर्ण नहीं है) की लत लग जाए तो फिर बदलाव की बेचैनी साफ झलक जाती है। अगर कोई टोकने वाला हो तो जख़्म और गहरे हो जाते हैं। जिसे भरने में लंबा वक्त लगता है। लेकिन टोकने और कोसने की जगह अगर अलग-अलग मत व विचारों वाले लोगों के बीच संवाद का रास्ता खुले तो बात आगे बढ़ सकती है। हमारे पास कोई अंतिम सत्य नहीं है। हम एक सफर के मुसाफिर हैं जो अपनी समझ लोगों से साझा करके राह पर आगे बढ़ जाएंगे। रास्ते पर बनने वाले निशानों की तरह गुम हो जाने के लिए।


किसी मुसाफिर का रास्ते पर कोई एकाधिकार नहीं होता। यही बात विचारों के क्षेत्र में भी लागू होती है।

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