Thursday 30 May 2013

शिवालिक की पहाड़ियों में..

पहाड़ों पर फैली जिंदगी के कठिन जीवन की कहानी इनके बीच से बहती दरियाओं में कैद हैं। देहरादून आने के बाद से एक विरोधाभाष मेरे मन में खटक रहा था कि यहां की जिंदगी बहुत शान्त, सुकून भरी और तमाम तरह की उलझनों से मुक्त है। लेकिन कुछ दिनों के बाद कैसा लगेगा। एक समय के बाद जीवन कैसा होगा। अगर हम लंबे समय के बारे में सोचना शुरु करें तो पाते हैं कि यहां आजीविका के लिहाज से किसी खास काम का पर्याप्त अभाव है। इसी कारण से पहाड़ों से मैदानों की ओर व्यापक पैमाने पर पलायन होता है। यहां के बौद्धिक तबके के जितने लोगों से मेरी मुलाकात हुई है।

सबकी बातों में पहाड़ की औरतें, पहाड़ के लोगों के बारे में बात करते हुए पलायन का जिक्र जरूर आता है। यहां के लोगों के अच्छे स्वभाव का भी जिक्र करना लोग नहीं भूलते। कुछ लोग इसे उनके पिछड़ेपन का कारण भी मानते हैं। तो कुछ लोग मेहनतकश पहाड़ी महिलाओं को पैसे की लत लगाकर उनको मेनस्ट्रीम के व्यवसाय से जोड़कर उनका सबलीकरण भी करना चाहती हैं। ताकि वह अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या से आजाद होकर अजीविका कमा सके और स्वाभिमान से अपना जीवन यापन कर सके। पहाड़ में रहने वाले लोगों को वहां की खूबसूरती नहीं दिखाई पड़ती।जीवन की मुश्किलों के सामने उनका सौंदर्यबोध परास्त हो जाता है। वे यहां से भागकर अपनी मुश्किलों से निजात पाना चाहते हैं। 

शाम को शिवालिक की पहाड़ियों को गुप्त काशी से निहारते हुए लग रहा था कि आसमान में निकले पूरे चांद का साथ छोड़कर सितारे पहाड़ों पर उतर आए हैं। घरों पर जगमग होती पीली-सफेद रौशनियों का नजारा ऐसी ही तस्वीर पेश कर रहा था। पहाड़ अपनी तरफ आकर्षित करते हैं। उनकी ऊंचाइयों को नापने का अपना अलग आनंद है। यहां की नदियां चलने और अपने प्रवाह के साथ बहने का का इशारा करती हैं। जिंदगी कितनी सस्ती है। एक गलत मोड़ और सांसों का हवा में गुम हो जाना। खुशियां तलाशने के लिए तमाम तरह के मेले ईजाद हो गए हैं। यह बात रीवर राफ्टिंग करने के दौरान महसूस हो रही थी। पूरी धरती को एक साथ करके देखने की प्रेरणा प्रकृति के बारे में सोचते हुए।

चांदनी रात में सर्दियों का एहसास था
मेरे सामने शिवालिक की पहाड़ियों के पार
झांक रही थी बर्फ से ढंकी धुंधली चोटियां
जो हिमालय के करीब होने का पैगाम थीं
देहरादून की तपती गर्मी कम हो रही थी
रिषिकेश के जंगलों की तरफ आते हुए
गंगा का पानी और शीतल हो रहा था
मंदाकिनी और अलकनंदा के रास्ते आगे थे
अचानक से मौसम बदला और आंधियों चली
आसमान में बादल उमड़े और कुछ बूंदे पड़ी
गुप्त काशी तक आते-आते हिमालय के पहाड़
शाम के ढलते सूरज की रौशनी में चमचमा रहे थे
पहाड़ों पर खिसके पत्थरों के कारण अटके थे हम
रास्ता खाली होने पर आगे बढ़ते हुए
आने-जाने वाले गांवों और वहां के लोगों को
निहारने का निरंतर क्रम जारी था
लोग स्वेटर और जैकेट पहने हुए थे
हम टीशर्ट में थे हम हैरान हो रहे थे
एक दिन के सफर में इतना परिवर्तन
पहली बार देखा था..............

पहाड़ अपनी तरफ आहिस्ता-आहिस्ता प्यार से बुलाते हैं। लेकिन वापसी में धकेलते हुए विदा करते हैं। मानों प्यार से कह रहे हों जल्दी जाओ। देहरादून वाले जब खुद को पहाड़ी नहीं मानते तो हम लोगों से कितना फासला रखते होंगे लोग। नरेंद्र सिंह नेगी के गाने काफी लोकप्रिय हैं। जो सहजता से गढ़वाली और हिन्दी भाषा के बीच सेतु बना लेते हैं। यहां से चार खंभा की हिमालय की चोटियां बहुत साफ दिखाई पड़ती हैं। जो केदारनाथ के करीब हैं। उनको देखना हमें एक अतिशय आनंद से भर देता है। सुबह-सुबह स्कूलों की स्थिति पर एक गर्मा-गर्म बहस का सामना करना पड़ा। गांधी के स्थानीयता के सिद्धांत को लोग समझते हैं। वे गांव को एक स्वायत्तशासी इकाई के रूप में देखना पसंद करते हैं। लोग इस बात को लेकर जागरूक हो रहे हैं कि स्थानीय लोगों को बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य मिले। 

स्थानीय स्तर पर जागरूक लोग अध्यापकों और नेताओं के खिलाफ हैं। उनका कहना है कि वे विकास के लिए मिलने वाली तनख्वाह और पैसे के हिसाब से काम नहीं करते। टीचर को उसी गांव में रहना चाहिए। ताकि वहां दुकानदारी करने वाले लोगों को फायदा हो। स्कूल समय से खुलें। बच्चों को अच्छी शिक्षा मिले। रास्तों की कठिनाई का बहाना पहाड़ के लोगों के लिए मुफीद नहीं है। इस बातचीत के दौरान राजस्थान के शिक्षाकर्मी योजना की याद आ रही थी। जिसमें स्कूलों की स्थिति सुधारने के लिए स्थानीय स्तर पर अध्यापकों की नियुक्ति की गई। उनको ट्रेनिंग देकर मुख्यधारा में शामिल किया गया। इस तरह की कोई व्यवस्था करने के बारे में सोचा जा सकता है। यहां पर स्कूलों में शिक्षा के स्तर सुधार के लिए काम करना काफी चुनौतीपूर्ण है। बाकी चुनौतियों के साथ भौगोलिक परिस्थिति की चुनौती भी शामिल हो जाती है। लोगों के मध्य जागरूकता का अभाव है। जिस पर काम किया जा सकता है।

फुरसत की दुनिया के बाहर समय बहुत कीमती है। इसलिए कोशिश करो कि लोगों का कम से कम वक्त लो। अपनी बात को संक्षेप में रखो। विश्व बैंक के बंदे का चीजों को प्वाइंटस में रखने का सलीका पसंद आया। लेकिन हिन्दी में बोलने में समर्थ होने के बावजूद पता नहीं क्यों हर बात दूसरे बंदे से कहलवा रहे थे। शायद बाकी लोगों को भी बातचीत में शामिल करने का नुस्खा रहा हो। इस मीटिंग में शामिल होना बहुत सुंदर अनुभव था।

यहां के लोग और गांव दोनो बहुत खूबसूरत हैं। गांव पहाड़ियों के ऊपर स्थित हैं। घर पास-पास में हैं। तो दूर-दूर भी। उनका कोई निश्चित पैटर्न नहीं है। सारे घर पहाड़ों के विस्तार में आसमान में सितारों के मानिंद विखरे हुए हैं। जिसकी झलक शाम के वक्त छत पर खड़े होकर पूरे गांव को निहारते हुए मिलती है। पहाड़ी की तऱफ इशारा करते हुए..एक छोटी बच्ची अपना घर से अपना स्कूल दिखा रही थी। मेरे लिए जगह को चिन्हित करना कठिन था। लेकिन उसे साफ-साफ दिख रहा था। यहां के लोग बहुत भोले और सहज हैं। उनको हिन्दी समझ में आती है। लेकिन वे गढ़वाली बोली में ही सुंदर तरीके से बात कर पाते हैं। गढ़वाली बोली उनके हाव-भाव से समझ में आ जाती है। यहां के लोगों की बातों में एक सच्चाई नजर आती है। जो यहां के जिन्दगी की नुमाइंदगी करती है। 

मेहनतकश लोगों को अपनी मेहनत का खाना और खुशी से रहना अच्छा लगता है। निन्यानवे के चक्कर से लोग काफी दूर हैं। घर के पुरुष कमाने के लिए मैदानों की तरफ काम करने के लिए जाते हैं। क्योंकि यहां पर आजीविका के काफी सीमित अवसर हैं। खेती कंटूर विधि से होती है। लोग नालियों में लहसुन ,हल्दी, अदरक और बड़ी ईलाइची की खेती करते हैं। सामान्य फसलों में धान, गेहूं, और सब्जियां आदि उगाते हैं। बंदरों को थोड़ा डर होता है। जिनको दूर भगाने के लिए लोग कुत्तों का इस्तेमाल करते हैं। बंदरों के डर से लोग फलदार वृक्षों और फसलों की खेती से बचते हैं। ऐसा लगता है जैसे दस दिन में पहाड़ों की फैंटेशी गायब हो जाएगी। जैसे यहां के लोगों को पहाड़ों की खूबशूरती का ख्याल नहीं आता। लेकिन पहाड़ों की विशालता और हरे-भरे जंगल बरबस ही मन को अपनी तरफ खींच लेते हैं। प्रकृति के मोहपाश में बंधा मंत्रमुग्ध मन हैरत से देखता रह जाता है।

शाम को वापसी के वक्त मन थोड़ा उदास हो गया था। किसी सोच में गुम हो गया था। गांव के लोगों के बारे में सोचते हुए लग रहा था कि अगर किसी को हम यहां की जिंदगी से बाहर ले जाते हैं तो यह प्रयास कितना सही होगा। लोगों की कठिन जिंदगी बहुत आकर्षित करने वाली लगी। यहां की जिंदगी मेहनत करने की सीख देने वाली लगी कि बाहर निकलो, लोगों के बीच जाओ और सोच-विचार कर कुछ लिखो। अकेले चलने की फितरत को रिकॉल कर रहा था। प्रकृति के साथ बेहतर रिश्ता बनाते हुए। 

लोगों को समझने के लिए सुनना बहुत सुंदर तरीका है। लेकिन संवाद की प्रक्रिया में चीजों को समझते हुए सलाह देने की प्रवृत्ति से बचना बहुत जरूरी है। आज लोगों से बात करते हुए जिस तरीके से उदाहरण मुझे सूझ रहे थे। वे मुझे आगे के सफर के लिए हेल्प करने वाला हैं। जिससे एक बात पता चलती है कि लोगों से संवाद करने की योग्यता का बेहतर इस्तेमाल करना बहुत जरूरी है। बहुत कुछ जानते हुए भी चुप कैसे रहा जाए..यह भी एक कला है। लोगों को सुनने में बहुत मजा है। ऐसा मजा सुनाने में नहीं है। बोलने से लगता है कि विचार प्रक्रिया टूट गई हो। इसलिए कभी-कभी खामोश रहना बहुत जरूरी है। आपका भीड़ से गुम होना भी उतना ही जरुरी है, जितना भीड़ में मौजूद रहना।

शब्दों के साथ खेलने की कला, स्केपटिकल और सिनिकल वे ऑफ पुटिंग थिंग्स, वही काम करना जिसका विरोध करता हूं, लोगों को मेरे बारे में एक ओपीनियन बनाने में उलझन होती है। गिलास थ्योरी पर लोग उलझे रहते हैं। लोगों को लगता है कि मेरे लिए चुप रहना काफी कठिन है। मैं अपने आप को इक्सट्रीम में जीने वाला इंसान मानता हूं। जो एक प्रवाह में है। खुद को किसी खांचे में सेट न करने की जिद मुक्त करने के रास्ते पर स्वीकार करने के साहस को बढ़ा रही है। एक संतुलन के साथ खामोश रहना बहुत जरूरी लग रहा है। लंबे समय के लिए सोचने का काम करना शुरू करना होगा। इसके लिए लोगों से बात करना, व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास करना बहुत जरुरी है, इसके साथ-साथ अपने आंतरिक सफर को गति देने की जरूरत है। व्यक्तिगत नैतिकता के बारे में सोचने और किसी निष्कर्ष पर पहुंचने की आवश्यकता महसूस हो रही है।

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