Friday 31 May 2013

पत्रकारिता और फेलोशिप के बीच पुल बनाती यादें...


फतह सागर झील के किनारे बीते दिनों को याद करते हुए
मेरे मन के भीतर-भीतर कुछ हलचल हो रही है। ऐसा लग रहा है जैसे कुछ बदल रहा है। अतीत के दृश्यों की तुलना वर्तमान से हो रही है। मैं अतीत और वर्तमान की होड़ में शामिल हुए बिना सापेक्ष भाव से चीजों को देख रहा हूं। समझने की कोशिश का प्रयास कर रहा हूं कि आखिर इतनी हलचल क्युं है ? बरोठी और मेट्रो की अज़ीब सी तुलना मन में चल रही है ?

बैलगाड़ी और मेट्रो, मिनी शॉपिंग मॉल और बिखरी सी दुकानें, ट्रेन की अथाह भीड़ और भागमभाग। दिल्ली को करीब से देखने और जानने का मौका मिला है। धीरे-धीरे दिल्ली की नब्ज़ पकड़ने की कोशिश करते हैं ताकि समझ पाएं कि दिल्ली क्या चीज हैं ? राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में होने का मतलब क्या है ? कल से परिचय के साथ लिखने के प्रोफेशन में पदार्पण हो जाएगा। देखते हैं कि आठ घंटे लिखने के मतलब क्या होते हैं, ऐसे अभ्यास की दरकार शायद लंबे समय से थी ?

अगर मुझसे सवाल होता है कि किस डेस्क पर काम करना चाहते हो तो शायद मेरे लिए अभी जवाब देना काफी कठिन होगा। पहले तो मुझे काम के मौहाल और जिम्मेदारियों को समझने के साथ-साथ तकनीक को समझना होगा, जिसके माध्यम से मेरे शब्दों को पाठकों तक जाने और वर्चुअल दुनिया के आसमान पर छा जाने का मौका मिलेगा। सफर रोमांचक हैं। मज़ेदार भी।

मैं अलग तरह से लिखने वाला हूं। मेरी सोच बहुत सारे लोगों से फर्क होगी। लेकिन समझने के लिए मेरी तरफ से पहल होगी। सीखने वाले अप्रोच के साथ पहल करनी है। सबके साथ मित्रवत व्यवहार रखना है।  बाकी देखते हैं। एक विचार मेरे मन में बार-बार आ रहा है कि मैं अलग तरह का पत्रकारिता करना चाहुंगा। तमाम तरह के पूर्वाग्रहों और आग्रहों से मुक्त। एक नई सोच के साथ सामान्य इंसान की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के साथ कदम-ताल करते हुए। बतौर माध्यम उनको शिक्षित, जागरूक और मनोरंजन का स्पेश देने औऱ संवाद करने की पहल करने की कोशिश करुंगा। भविष्य की चुनौतियों को समझते हुए, अपनी तैयारी करते हुए, अपनी पहचान बनाने की कोशिश करुंगा। 

काम करते समय रचनात्मक अवसरों को पहचानने के साथ उनको हक़ीकत में ढालने का समय आ गया है।    
डर लग रहा है क्या
डर से ज्यादा हैरानी हो रही है
एक तुलना सी चल रही है गांव और मेट्रो सिटी की
तुलना करोगे तो बहुत दुःख होगा
इसकी संभावना तो है, लेकिन चीजों को बहुत वस्तुनिष्ठ तरीके से देख रहा हूं।
किताबों के तीन बैग भर गए, कैसे लेकर जाओगे
किताबों का वज़न कपड़ों से बहुत ज्यादा होता है
किताबों की सेल लगवा देगा
मुकेश कह रहा था कि इतनी किताबें पढ़कर करता क्या हूं
मैनें जवाब दिया बौद्धिक बकैती के लिए
तुम दुःखी से लग रहे हो
अपने बारे में लग रहा है कि उस दुनिया में फंस गई, जहां नहीं जाना था
एक तरीके का फंसना ही है, मेट्रो में जाने के बाद वापसी नहीं होता
लोग अपनी बातें साझा करेंगे, ऐसा न हो कि हमारा ब्रेनवाश हो जाएगा
लोगों से मिलने में खतरा है, 
मुझे लगता है कि अगर आप लोगों से मिलते हैं तो आप उनको समझ पाएंगे
फॉलों करना इतना आसन नहीं, शायद नहीं और शायद हां भी
लोग बुरे नहीं हैं, उनकी परिस्थितियां हैं
तुम जैसी हो वैसा रहना चाहती हो हां
मुझे पता नहीं है कि मैं कौन हूं
हम, हैं ही नहीं, जो हम हैं
हम बदलते रहते हैं
मौसम, विचार, शरीर बदलते रहते है
बदलाव बहुत स्वाभाविक है
हम बहुत क्रूर भी हो सकते हैं
अभी बहुत प्यार करते हैं
कुछ अच्छा होगा और कुछ बुरा होगा
कुछ मत करो, ऐसी स्थिति आएगी कैसे
बदलती ज़िंदगी अज़ीब सी है
मैं और मेरा सेल्फ
भागना भी कह सकते हैं
सामना करने का अपना तरीका है

शाम को जब ट्रेन में दिल्ली आने के लिए बैठा था, तो भविष्य के ख़्याल मन में उमड़ रहे थे। जिसमें फेलोशिप के दिनों का इतिहास और मीडिया के भविष्य के तमाम सवाल-जवाब और उम्मीदों के उजाले टिमटिमा रहे थे। सफर के लिए बहुत सारे लोगों का शुक्रिया कहना चाहता था, लेकिन एक पल में सबका आभार व्यक्त करना शाब्दिक तौर भी संभव नहीं होता।

मन के आभार के लिए तो वक़्त की दरकार होती ही है। फिर भी कुछ लोगों का प्रत्यक्ष तौर पर थैंक्स अ लॉट कहने का मौका हाथ से जाने नहीं दिया। उन्होनें भी बेहतर भविष्य के लिए शुभकामनाएं और मंज़िल के तरफ बढ़ने को प्रेरित किया। बिच्छीवाड़ा के सभी दोस्तों, अजय, मुकेश और बाबूराम की बहुत याद आ रही थी। उनके बिना फेलोशिप के लगभग दो साल और बेहतर शुरुआत के साथ अंत के बारे में सोचना संभव नहीं होता। शाम को ट्रेन में बच्चों की मुस्कुराहटों के साथ सहज संवाद हो रहा था। मुस्कुराहटें कितनी संक्रामक होती हैं, तेजी से एक चेहरे से फिसलकर दूसरे चेहरे पर फूलों की तरह खिल जाती है।



ट्रेन में अंकित से मिलना हुआ। अंकित कह रहा था कि उसके पास में बैठी एक बच्ची अपने पापा से पूछ रही थी कि एक पटरी पर दो ट्रेनें चल सकती हैं क्या पापा नें गुस्से सें कहा पागल हो गई हो क्या भला एक पटरी पर दो ट्रेनें कैसे चल सकती हैं मम्मी नें स्थिति को संभालते हुए कहा कि बच्ची के मासूम सवालों से अरे क्यों नारज होते हैं ? आगे पीछे तो दो ट्रेने आराम से चल सकती हैं। अंकित अपने फेलोशिप के अनुभवों को साझा करते हुए कह रहा था कि पहले बच्चे उसके लिए सिर्फ शरीर भर थे। जिनको शारीरिक उछल-कूद के द्वारा मनोरंजन करने की कोशिश करता है।

लेकिन अब बच्चे के मन वाले पहलू को भी ध्यान में रखकर उसे खुशी देने की कोशिश करता है। बच्चों को समझने का मौका वाकई स्कूल के बच्चों के साथ संवाद के दौरान मिलता है। आगे के सफर के लिए उसकी शुभकामनाएं मिली और उसने कहा कि लिखने का सिलसिला सतत आगे भी जारी रहेगा। आखिरी सत्र के दौरान कुछ साथियों से विछड़ने की उसकी तकलीफ चेहरों से ज़ाहिर हो रही थी। तो मैनें कहा कि किसी करीबी दोस़्त का जाना हमें कमजोर करता है तो मज़बूत होने का मौका भी देता है। खुद के अस्तित्व को नए सिरे से समेटने का मौका देता है। अजय भाई के काम के प्रति लगन, मेहनत, समय से होनें और परवाह करने की मासूमियत की वह मन से तारीफ कर रहा था।

उसकी बातों से उसकी तकलीफ ज़ाहिर हो रही थी कि संघर्ष करने वाले इंसान को अपने बारे में बोलने का मौका कम मिलता है, इसलिए वह अपनी बात रखना चाहता है। संवाद के अवसरों की समानता वाली बात के पक्ष में उसके तर्क सटीक थे। बातचीत के बाद में सोने के लिए ऊपर की बर्थ पर वापस आ गया। ट्रेन चित्तौड़गढ़ के बाद भीलवाड़ा पार कर रही थी। भीलवाड़ा के नाम से लग रहा था कि कितनी अज़ीब सी जगह होगी। लेकिन वहां तो चौड़ी सड़कें थी, रौशनी से नहाई हुई और गांवों के मुकाबले पक्के मकान थे। देखकर लगा कि नाम से न जान कैसी तस्वीर हम मन में बना लेते हैं, लेकिन वास्तविक हकीकत कुछ औऱ ही होती है।  

No comments:

Post a Comment