Thursday 30 May 2013

किताबों की भीड़ में...

किताबों की भीड़ से कमरा भरा-भरा सा लगता है। उनके कवर पेज, इंसानी चेहरों की तरह झांकते हैं। जो लंबे समय से इंतज़ार की कतार में खड़े-खड़े उपेक्षिक महसूस कर रहे हैं। लेकिन किताबों की शक्ल में वे इंतज़ार करने को अभिशप्त हैं। 
वे इंतज़ार करने की पीड़ा से गुज़रने को अभिशप्त हैं। इंतजार करते-करते उनको इंतार की आदत सी हो गई है। उनके चेहरे पीले पड़ जाते हैं। थकान से उनके चेहरों पर सलवटें पड़ जाती हैं। लेकिन उनके बाद करने के दौरान उनके कथ्य की ताजगी नवीनता से ओतप्रोत होती है। जिसकी ताजगी पढ़ने की प्रक्रिया में पाठक से साझा होती रहती है।

तमाम किताबों की भीड़ के बावजूद कमरे में एक सतत खामोशी और सन्नाटा सा पसरा रहता है। इस खामोशी को हाइवे से गुजरने वाले वाहनों का शोर, कमरे की लेट-लतीफ चलने वाली घड़ी की टिक-टिक , गज़लों की आवाज और नल की टोटी से टपकते पानी की बूंदे तोड़ने की कोशिश करती हैं। लेकिन बीच-बीच में सन्नाटे के तमाम अंतराल आते-जाते रहते हैं। जिसका सामना करना कभी-कभी मुश्किल हो जाता है। लगता है कि अगर कोई बात करने वाला होता तो मन की बात कह लेते। मन को तसल्ली मिल जाती। लेकिन मन की बात कहने की सहजता और मन की बात सुनने वाले की सहृदयता के मिलन के बगैर कोई बात कहने की भूमिका का निर्माण करना मेरे लिए बहुत कठिन होता है।

एक दिन गांव से कमरे की तरफ वापस लौट रहा था। जीप में दो महिलाएं संवाद कर रही थीं। स्थानीय बोली की सामान्य समझ के कारण उनकी बात के मर्म तक पहुंचना मेरे लिए कठिन हो रहा था। एक प्रौढ़ महिला, बुजुर्ग महिला से अपनी तकलीफ साझा कर रही थीं। बुर्जुग महिला उसे नियति मानकर सह लेने की बात कर रही थीं कि तकलीफ सहने के सिवा हम कर भी क्या सकते हैं, प्रौढ़ महिला अपनी तकलीफ बयां करते-करते आंखों में आए आंसुओं को मुश्किल से संभालने की कोशिश कर रही थीं। उनकी नजरें मेरी तरफ भी थीं कि कहीं मैं उनकी बातें सुन तो नहीं रहा हूं। मैं दूसरी दिशा में देख रहा था ताकि उनके संवाद के बीच मैं बाधा न बनूं। 

ज़िंदगी की समस्याओं का समाधान व्यक्तियों में खोजने से उपजी हताशा जिंदगी की कड़वाहट से भर जाती है। जिसके कारण बेहतर पक्ष की तरफ देखने का हौसला भी हार मान लेता है। जीवन की पराजयों के तमाम अध्यायों को लिखने का सिलसिला ऐसे ही शुरु होता है। जिसके साथ लोग जीने की आदत सी ढाल लेते हैं। जिसके अभाव में संघर्षों का सतत सिलसिला जीवन को क्षोभ से भरता चला जाता है। नियति पत्थर की कीर हो जाती है। इंसान लकीर का फकीर हो जाता है। यथास्थिति के प्रति समर्पण कर देता है। बदलाव के स्वपन और कल्पनाओं को मिथ्या मान लेता है। सच्चाइयों की चारदीवारी में कैद बेबस इंसानों के मन के पत्थर (जड़) होने की कहानियां ऐसे ही लिखी जाती है। 

उससे उसके रोने का कोना छिन जाता है। बेबसी भरी मुस्कुराहट से लोगों का स्वागत करने की परंपरा का निर्वाह उसे भारी लगने लगता है। लेकिन मुस्कुराने और लोगों से अपना गम छुपाने की हर संभव जतन वह करता है। ताकि समाज में समाजीकृत व्यक्ति की तरह जी सके। लोग उसे ऐलियन की संज्ञा न दें। इसके ठीक विपरीत कुछ तो लोगों की परवाह से बेखबर अपनी राह आप बनाने का निर्णय करके, अपनी ज़िंदगी का कहानी खुद लिखने की शुरुआत करते हैं। ऐसा करते हुए वे जीवन में प्रचलित प्रवाह के विपरीत बहने की कोशिश करते हैं। जिसको मान्यता देने से वर्तमान समाज कतराता है। लेकिन अंततः जीवन चलता है। खुद के चयन को समाज के प्रमाण पत्र की आवश्यकता नहीं होती। वह स्वयं आपने जीवन से प्रमाणित होता है।

आजकल उलझे हुए विचारों की खींचतान से बचने के लिए किताबों की भीड़ में छिपने की कोशिश करता हूं ।ताकि मन के सन्नाटे के शोर से बच सकूं। किताब के पुराने पन्ने पहलटते हुए, सालों पीछे के दिन चलचित्र की तरह आंखों के सामने तैरने लगते हैं। पुरानी किताब के घटनाक्रमों की ताजगी हैरानी से भर जाती है कि कोई सालों पहले उन सारी स्थितियों-परिस्थितियों के बारे में गंभीरता से सोच-विचार कर रहा था। जिसका सामना करके हम हैरानी से भर जाते हैं। संवेदनशीलता और भावनाओं का स्पर्श अक्षरों को जीवन देता है। पढ़ने वाले के माध्यम से रचना पुर्नजीवित होती है। लिखने वाला पढ़ने वाले के प्रति आभार व्यक्त करता है कि जब तक पढ़ने वाले लोगं हैं, साहित्य मर नहीं सकता। 

लेकिन उस भागने में कोई आजादी नहीं है। बस एक सफर है। सड़कों पर मीलों पैदल चलने के जैसा जो मन की तमाम उलझनों को आगे बढ़ते कदमों के निशानों के साथ पीछे छोड़ता जाता है। मन निश्चिंत होता जाता है। लेकिन ऐसा सुकून और खुशी के लम्हे ज्यादा देर नहीं टिकते। हर वापसी के साथ दुःख साथ हो लेता है। एक सच्चे हमराह की तरह। हर सफर पर साथ देने के वादे के साथ।


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