Thursday 30 May 2013

फिर मिलेंगे दोस्तों...

आंखे नम हो जाती हैं. आंसुओं का कतरा आंखों से निकलने को बेताब हो जाता है. रोना स्वाभाविक बात सी लगती है. मिलने के बारे में तो ज्यादा कुछ कहना बहुत कठिन है. लेकिन हम सारे लोग एक टीम के रुप में बंधे थे. धीरे-धीरे एक दूसरे से परिचित हो रहे थे. 

संदीप और जनार्दन के साथ-साथ श्रद्धा, सलमान, प्रत्यूष, नंदिता जी, चंद्रपुर के एडमिन, स्वेतलाना बाकी सारे लोगों के साथ वहां से एक नई ज़िंदगी शुरु की थी. मुझे याद है कि कैसे अंकिता मराठी बोलने वालों पर चीखती थी. लोग फाइन लगाने की बात करते थे. लेकिन अपनी बोली में बात करने के आनंद को दो बात करने वाले ही समझ सकते हैं.

विछड़ने की तो जैसे आदत सी लग गई है. ओरिन के बाद किरण, तपस भी चले गए. अंकिता भी चली गई. बाद में जब कभी उनकी याद आती थी तो लगता था कि अगर वे साथ रहते तो अच्छा होता. लेकिन हमने हमेशा बड़े दिल से लोगों को विदा किया कि उनकी जहां पर खुशी है, वहां जाने से रोकना नहीं चाहिए, उनको आगे बढ़ने के लिए शुभकामनाएं देनी चाहिए. तपस और मैनें पहली बार एक दूसरे का परिचय दिया था. हमने अपने लिए एक शीर्षक चुना था....पथिक. कितना सच है कि हम सारे लोग एक मुसाफिर की तरह से एक सफर में हैं. जिसके किसी मोड़ पर लोगों से एक-एक करके विदा होते जाते हैं. आखिर में हम भी तन्हा-तन्हा धीरे-धीरे कदमों को आगे बढ़ाते हुए, अतीत के बारे में सोचते हुए आगे चले जाते हैं.

दिल्ली में 15 दिन तक बहुत डूबकर काम किया. लोगों की याद आती थी. शशी, विशाल, प्रवीण, सुमिता, अजहर सबसे बात होती थी. लेकिन वे दिन ज्यादा तकलीफ वाले नहीं थे, क्योंकि हम एक-दूसरे को समझा पा रहे थे कि कोई बात नहीं वापस आकर मिलते हैं. अभी हमारे मिलने का समय भी पंख लगाकर उड़ने वाला है. यह पल भी जाने वाला है. यह सोचकर बहुत तकलीफ होती है. आंसुओं की झड़ी सी लग रही, अपने मन की बात लिखते हुए. लेकिन जानती हूं कि तुम लोगों का डूंगरपुर जाना, साथ रहने के पहले एक छोटी सी विदाई जैसा था. तुम लोगों की खुशी में अपनी खुशी देखते हुए जाने दिया, प्रवीण-विशाल से बात होती थी कि बरोठी के दिन बहुत याद आते हैं. बरोठी से बहुत लगाव सा हो गया था. बिच्छीवाड़ी टीम की बात थी तो लगा कि फेलोशिप वहीं से पूरी होनी चाहिए.

सबको अपना मनचाहा काम मिल रहा है. सब अपने आगे के सफर की चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हैं. यह सबसे अच्छी बात है. फेलोशिप के सफर के बारे में मुझे बस इतना कहना है कि मैनें ज़िंदगी से दो साल अपरने जीने के लिए छीने हैं. खुद का फैसला लेकर. घर वालों की स्थाई नौकरी की हसरत, ऑफिस वाला काम खोजने की अपील, शादी की बातें उनसे आज़ादी सी मिल गई थी. अभी उनसे बात होती है तो वे खुश हैं कि भले दो साल उनको तकलीफ हुई. लेकिन अबह वे लोगों को मेरे बारे में बताते हुए संकोच  नहीं करेंगे कि मै क्या काम कर रहा हूं....फेलोशिप की समाप्ति तक बहुत सारी चीजें बेहतर तरीके से शुरु हुई हैं.

यहां आने के बाद आगे के सफर के बारे में कुछ भी कहना अनिश्चित था. लेकिन यहां दो सालों के दौरान जो सीखा है, उसको शब्दों में बताना कठिन है. लोगों के साथ सहजता से घुलता-मिलता हूं. महफिलों का आनंद लेता हूं. वहां रौनक घोल देता हूं. कितनी भी गंभीर बात हो रही हो, माहौल को सहज बना देता हूं. अगर आप लोगों के साथ इतनी बहसें, नोकझोंक न होती तो सहजता का आना कठिन था. तमाम छोटी-छोटी बातों से बाहर निकलने और लोगों को उनक् स्वभाव के साथ स्वीकारने की कला को जीवन का हिस्सा बनाने का संयोग यहां बना. शशी के ऊपर काम करने वाली उसकी बात से लग रहा था कि वह भी काफी सोचता है. उसके तरीके से जीना तो मुझसे नहीं हो पाएगा. लेकिन उसकी आदत का अगर थोड़ा सा हिस्सा जीवन में ला पाए तो बहुत बड़ी बोता होगी. 

प्रवीण के बारे में क्या कहा जाए.....। उससे अपनी बातों का सिलसिला कभी रुकने का नाम नहीं लेता था. हमने खूब बातें की है. इसका सिलसिला आगे भी जारी रहेगा,. लिखने के सफर को चश्के का रुप देने में उसके लैपटॉप की बड़ी भूमिका है. वहीं से फेलोशिप के विलेज इमर्सन वाले दिनों के बारे में लिखने की शुरुआत की थी. जो आगे बढ़ता रहा. आज देख रहा ता, ब्लॉग पर पोस्ट का चौथा शतक गल गया है...चार सौ के ऊपर पोस्ट लिखी जा चुकी हैं. उनका सिलसिला जारी रहेगा...आज के पोस्ट में युवा सम्मेलन का जिक्र किया है कि कैसे हमने बाहरी दुनिया को करीब से देखा और खुद को समझ रहे थे. प्रवीण का गुस्सा देखने लायक था. 

अरुणा रॉय से होने वाली बातचीत हमारे लिए आगे के सफर की चुनौतियों का नज़ारा पेश कर रही थी कि जिस सोच के साथ हमने जीना शुरु किया है, उसको आगे लेकर जाना आसान नहीं है. बड़े-बड़े लोग सामान्य सा बर्ताव करते हैं. वहां हम खुद को ज्यादा परिपक्व और समझदार पाते हैं. शायद फेलोशिप की यही खासियत है कि वह आपको वह बनाती है, जो आप बनने की प्रक्रिया में हो. बाकी फिर लिखते रहेंगे. अपनी टीम के बारे में सोचकर अच्छा लगता है कि हमने फेलोशिप के मूल भाव को जीने की कोशिश की...गलतियां कीं, सीखा, सीखने को भुलाया, लेबलिंग की और लेबलिंग के खतरों को देखा...जजमेंट बनाए...मिटाए...।

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