Thursday 30 May 2013

प्राथमिक शिक्षा की विषमता का एक अध्याय

सरकारी स्कूलों की स्थिति पर सालाना आने वाली प्रथम की रिपोर्ट पर काफी गर्मा-गर्म बहस होती है। इसको लेकर सरकारी स्कूल के अध्यापकों की रोषपूर्ण प्रतिक्रिया काबिल-ए-गौर होती है। सरकार का प्राथमिक शिक्षा के ऊपर खर्च किया जाने वाला बजट भी ध्यान खींचता है। इन सारी बातों व बहसों के मूल में जाकर पड़ताल करने की जरूरत है ताकि वास्तविक स्थिति व यथास्थिति बनाए रखने वाले कारणों को खोज सकें। यहां हम एक बड़े व्यवस्थागत (समूची प्राथमिक शिक्षा) सवाल के बारे में बारे में सोच रहे हैं। जिसका समाधान व्यक्ति या व्यक्तियों के अंदर खोजने से भटकने की गुंजाइश निरंतर बनी रहती है। स्कूल एक व्यवस्था है। जो व्यक्तियों के माध्यम से संचालित होती है। जो शिक्षा व्यवस्था के नियमों के तहत काम करती है।

सबसे पहले हम स्कूल के प्रकारों की बात करते हैं। हमारे आसपास सरकारी व निजी दो तरह के स्कूल हैं। एक सरकारी व जिसमें औपचारिक व वैकल्पिक के आधार पर भी निजी स्कूलों को भी दो भागों में बांटा जा सकता है। सरकारी स्कूलों में पहली क्लॉस से पढ़ाई शुरू होती है। निजी स्कूलों में लोअर किंडर गार्टेन (केजी) , केजी से यूकेजी तक का सफर तय करके बच्चा पहली में प्रवेश करता है। इस दौरान उसकी छः साल की उम्र भी पूरी हो जाती है। दूसरी तरफ सरकारी स्कूल के बच्चों से अपेक्षा की जाती है कि आंगनवाड़ी में उन्होनें शुरुआती तैयारी की होगी। लेकिन वास्तविकता में स्थिति अगर आदिवासी अंचल की बात करें तो पहली के पहले की स्थिति कमोबेश ढाक के तीन पात जैसी हो जाती है।

इस लेख की एक आधारभूत मान्यता है कि बच्चों को ज्ञान निर्माण के कौशल विकास में पोषण की बुनियादी खुराक तीन साल की उम्र से छः साल तक मिलनी चाहिए। इसके अभाव में सरकारी व निजी स्कूलों की स्थिति को बेहतर ढंग से समझने में अड़चन आ जाती है। शिक्षा के शुरुआत की नींव से अगर हम सोचना शुरू करें तो पाते हैं कि तीन सालों का फासला तमाम स्थितियों के लिए निर्णायक कारण बन जाता है। मूल कारण की उपेक्षा करके समस्या को समझने और उसके समाधान के लिए होने वाली तमाम बहसों व आलोचनाओं से एक खास एंगल गायब हो जाता है। अगर हम इस एंगल को ध्यान में रखकर सोचतें हैं तो भेदभाव की साफ तस्वीर नजर आती है। जो जाने-अन्जाने सरकारी स्कूल जाने वाले बच्चों के साथ हो रहा है।
   
स्कूलों की स्थिति को गहराई से समझने के लिए सरकारी व निजी स्कूलों का तुलनात्मक विश्लेषण करते हैं तो कुछ खास तथ्य निकलकर सामने आते हैं। मसलन सरकारी स्कूल में आने वाले बच्चे व निजी स्कूल में आने वाले बच्चे की स्कूलिंग यीयर्स के बीच न्यूनतम दो-तीन व अधिकतम पांच साल का फासला होता है। (अगर उम्र को दरकिनार करके सीखने के स्तर के आधार पर कक्षाओं में प्रवेश देने की व्यावहारिक स्थिति को ध्यान में रखा जाय़।) तीन साल की स्कूलिंग और बिना किसी स्कूलिंग के पहली से शुरूआत करने वाले बच्चों के सीखने के स्तर में अंतर तो होता है। इसके अलावा पाठ को समझने की गति व लेखन कौशल के विकास में भी स्पष्ट विभिन्नता दिखाई पड़ती है। जिसको नजर अंदाज करके हम आगे नहीं बढ़ सकते। 

यहां आकर ज्ञान निर्माण के कौशल विकास में सहायक बुनियादी खुराक का सवाल फिर से प्रासंगिक हो उठता है ? सरकारी प्राथमिक स्कूल में आने वाले बच्चों को बालवाड़ी में (तीन से छः साल तक ) किस तरीके से पढ़ाया जाता है ? उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाता है ? उसकी जिज्ञासाओं और कल्पनाओं को क्या कोई खिड़की या आसमान मिलता है ? या फिर वे औपचारिकता के जाल में सिमटकर रह जाती हैं। इन सवालों के जवाब में वर्तमान स्थिति को समझने के तमाम सूत्र मिलते हैं। अगर बालवाड़ियां बेहतर ढंग से संचालित हो रही हैं तो स्थिति में बदलाव साफ-साफ दिखाई पड़ता। प्री स्कूलिंग स्तर पर की गई अनदेखी व लापरवाही एक गंभीर स्थिति उत्पन्न कर रही है। जिन बच्चों को दौड़ना चाहिए वे बकैंया (घुटनों के बल ) चल रहे हैं।

अगर बच्चे के शारीरिक विकास में कोई विसंगति होती है तो अभिभावक जल्दी सतर्क हो जाते हैं। ईलाज के लिए डॉक्टरों के पास जाते हैं। अगर सतही तौर पर स्वीकार करें तो बौद्धिक और मानसिक विकास के लिए बच्चों को स्कूल लेकर आते हैं। अगर उस स्तर पर कोई दिक्कत है तो क्या करें ? ऐसे सवाल के उनके पास सीमित जवाब होते हैं जैसे बच्चा ही पढ़ने में कमजोर है तो क्या करें ? स्कूल बदल दें ? घर पर समय नहीं दे पाते हैं तो कोचिंग लगा दें ? पढ़कर क्या करेगा ? जैसे तैसे आठवीं पास कर ले , नौकरी तो लगनी नहीं है ? पास तो हो जाएगा फिर क्या दिक्कत ?

वर्तमान स्थिति को देखते हुए लगता है कि स्तरीय जागरूकता के विकास में सालों लगने हैं। बच्चों को समझने की कोशिश में अभिभावक और अध्यापक दोनों चूक रहे हैं। इस उलझन की मार से स्कूल जाने वाला बच्चा बेजार है। सरकारी स्कूल में पढ़ाई की अपनी समस्याएं हैं। एक किलोमीटर के भीतर वाले स्कूल में बच्चे को प्रवेश देना है। अगर वहां से कोई बच्चा दूर की स्कूल में जाना चाहता है (जहां अच्छी पढ़ाई होती है ) तो उसे नजदीक के स्कूल में प्रवेश की बासी समझाइस दी जाती है। ऐसी स्थिति में अभिभावक के सामने क्या विकल्प बचते हैं ? बच्चों को परिस्थिति के हवाले कर दे स्कूल के अध्यापक से बच्चे को प्रवेश देने की मिन्नतें करें या फिर निजी स्कूल की तरफ जाने की सोचे। जो उसकी हैसियत के बाहर की बात हो सकती है। सरकारी स्कूल में तो वजीफा भी मिलता है। दोपहर का खाना भी। स्कूल की ड्रेस भी। अभिभावक ऐसे प्रलोभनों और मजबूरियों के कारण भी बच्चों की तरफ से बेपरवाह हो जाते हैं। सर्वे करने वालों को तो आंकड़ों से मतलब होता है। परिस्थितियों के अनुसार आंकड़ों की निरंतरता बनी रहती है। स्कूल चलते रहते हैं।

उनमें बातचीत,गीत,कविता और कहानी के माध्यम से भाषा के प्रति लगाव विकसित किया जाय। धीरे-धीरे पूरे धैर्य के साथ सुनने,समझने बोलने जैसी गतिविधियों में शामिल करना। बैठने की आदत डालना। बच्चों के चंचल मन की पूरी समझ के साथ उनको अभिव्यक्ति के तमाम अवसर देना। मसलन गीत व बातचीत के अलावा चित्रों के माध्यम से आसपास के वातावरण, रंग और दुनिया की हैरानियों से अवगत कराते रहना। ताकि उसकी जिज्ञासाओं व कल्पनाओं को एक दुनिया मिल सके। जिसमें उसके स्व की मौजूदगी भी महत्वपूर्ण स्थान रखती हो। जिसमें वह अपनी बातों व पसंद-नापसंद को सामने रखे। इससे बच्चे के साथ बात करने की सहूलियत बढ़ जाती है। इस स्तर पर अपनी स्थानीय परिवेश और घर-परिवार में बोली जाने वाली भाषा में सीखने वाले बच्चों के लिए माहौल के साथ समायोजन में सहूलियत होती है।


बाकी बच्चों का क्या होता है ? जिनको घर की भाषा बोली से अलग माहौल में सीखना होता है। वे एक तरह की दुविधा से गुजरते हैं। कुछ व्यावहारिक उदाहरण – बच्चा अंग्रजी माध्यम के स्कूल में जाता है। घर पर वापस आक कार्टून नेटवर्क जैसे तमाम चैनलों पर हिन्दी में आने वाले कार्यक्रम देखता है। कार्यक्रम में रूचि के कारण उसकी हिन्दी का विकास अंग्रेजी की तुलना में तेजी से होता है। वह हिन्दी में करीने से बात कर लेता है। लेकिन मम्मी चाहती हैं कि उससे बात करने वाले लोग चीजों का नाम अंग्रेजी में लें। उनको डर है कि उसकी अंग्रेजी पर हिन्दी उन्नीस ही रहे । बीस होने का तमगा अंग्रेजी को मिले। केवल इसलिए क्योंकि उस भाषा विशेष को पड़ोस के मित्रों में ज्यादा सम्मान प्राप्त है।   

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