इन
कारणों के पड़ताल में जाने का मौका मिला तो मैनें शिक्षकों से पूछा कि वे अपने काम
से खुश हैं या नहीं? इस सवाला का मिलाजुला सा जवाब सुनने को मिला। कुछ शिक्षकों
का कहना है कि वे लोग अपने काम से संतुष्ट नहीं हैं जो जीवन में कुछ और बनना चाहते
थे। जिन्होनें मेडिकल, सिविल और इंजीनियरिंग की तैयारी करी। लेकिम अपने क्षेत्र
में सफलता के अभाव में रोगजगार के रूप में शिक्षक के पेशे का चयन कर लिया।
तो
कुछ शिक्षकों का मानना है कि वे अपने काम से पूरे खुश हैं। कोई शिक्षक उदास नहीं
है। लेकिन जमीनी हालात उनकी असंतुष्टि और दुःख को सामने ले आते हैं। कुछ शिक्षकों
में प्रेरणा का अभाव है। तो काम करने वालों को लोगों के सहयोग कीजगह प्रतिकार के
कारण तकलीफ होती है। कुछ शिक्षक पढ़ाई के अतिरिक्त स्कूलों में होनें वाले तमाम
कामों से परेशान हैं। जिसमें डाक बनाने से लेकर, पशुगणना, जनगणना, आधार कार्ड और
मतदाता सूची बनाने जैसे तमाम काम है।
कुछ
शिक्षक स्कूलों में निर्माण के काम की जिम्मेदारियों से भी परेशान हैं।
उनका कहना
है कि निर्माण की जिम्मेदारी एसएमसी और समुदाय की होनी चाहिए। इसके साथ-साथ
जवाबदेही भी उनकी होनी चाहिए। वर्तमान में जवाबदेही तो हमारी होती है, लेकिन काम
करवाने के लिए एसएमसी और समुदाय का सहयोग लेना जरूरी है। इसके कारण कमीशन मांगने
की घटनाओं का सामना शिक्षकों को करना पड़ता है। कुछ सदस्य तो बिना पैसे के किसी
चेक पर हस्ताक्षर नहीं करते।
उनको
लगता है कि हर खरीददारी और काम में पैसे का बंटवारा होना चाहिए। यहां भ्रष्टाचार
की बात तो स्वीकार्य है। समुदाय से इतर शिक्षक अपनी शिक्षा व्यवस्था में कमीशन
खाने की प्रवृत्ति से परेशान हैं। उनका कहना है कि एक काम के बदले कई सारे लोग
कमीशन के लिए मुंह ताकते हैं। काम में ईमानदारी बरतो तो भी बीस प्रतिशत जेब से
देने पड़ते हैं। लोग डर के नाते सवाल नहीं उठाते। लेकिन परेशान सारे लोग हैं।
इस
कारण से कुछ शिक्षकों नें स्कूल के लिए एसएसए से तमाम बजट आने के बाद भी निर्माण
कार्य को हाथ नहीं लगाया कि दलाली में कौन हाथ काला करे। इससे बेहतर है कि जैसी स्थिति
है, उसी में संतुष्ट रहा जाय। काम न करने वाले ऐसे लोगों को बाकी लोग
यथास्थितिवादी और अव्यावहारिक मानते हैं। वे कहते हैं कि जमाने के अनुसार चलने से
काम होते हैं तो उसके खिलाफ चलने की जरूरत क्या है ?
ऐसे
में सिर्फ परीक्षा प्रणाली को बेहतर बनाने, सतत मूल्यांकन करने और भयमुक्त वातावरण
बनाने की बात से शिक्षा में बदलाव की उम्मीद कितनी सही है?
प्राथमिक शिक्षा में प्रशासनिक स्तर भी तमाम सुधारों की जरूरत है। उसके अभाव में
मानसिकता में खाने-पीने की बात पनपती रहेगी और बदलाव की जगह यथास्थिति कायम रहेगी।
जिसमें बदलाव लाना स्कूल की भौतिक संरचना से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है।
जब
तक लोगों की सोच में बदलाव नहीं होता। तब तक स्कूलों के बदलाव का लक्ष्य हासिल
करना बेहत कठिन है। शिक्षा में बदलाव के नाम पर बहने वाला पैसा, भ्रष्टाचार और
कमीशन की गलियों में गुम हो जाएगा। ऐसे में बदलाव की तमाम रणनीतियों में सुधार की
जरूरत है। जिसकी पहल सरकारी स्तर पर होनी चाहिए। सिर्फ बाहरी दबाव से बात नहीं
बनेगी। लेकिन सुधारों की राह में शिक्षा में राजनीति का दखल एक बड़ा रोड़ा है।
मेरे सोचने का सिलसिला
शिक्षकों की स्थिति से बाहर बच्चों के दायरे में प्रवेश कर गया। मन में एक सहज सा
सवाल उठा कि अगर स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक उदास हैं, तो कमरों में बैठे उन
बच्चों का क्या हाल होगा? क्या वे भी शिक्षकों की मनःस्थिति
से प्रभावित होते हैं। अगर हां तो क्या शिक्षकों को अपनी उदासी और उदासीनता बच्चों
के बीच लेकर जाना चाहिए?
शिक्षकों की मनःस्थिति का छात्रों के मनोबल पर
तत्काल और दीर्घकालिक असर पड़ता है। बच्चे शीघ्र ही अध्यापकों के मन की बात ताड़
लेते हैं। ऐसे में बच्चों का व्यवहार प्रभावित होता है। जो बच्चे समझ नहीं पाते की
दूसरी तरफ क्या चल रहा है ? वे अपने तरीके से पेश आते हैं।
जिसके कारण अध्यापकों का व्यवहार भी प्रभावित होता है। हो सकता है ऐसी स्थिति में
वे गुस्से से पेश आएं।
कभी किसी बच्चे नें दूसरे बच्चे को मार दिया। वह
रोता हुआ उनके पास आता है तो क्या निर्णय करना है ? रोने
वाले बच्चे को कैसे शांत कराना है पीटने वाले बच्चे के साथ कैसे पेश आना है ताकि
रोने वाले को सांत्वना मिले कि उसकी बात सुनी गई है। ऐसी तमाम नयी-नयी परिस्थितियों
का सामना एक शिक्षक को करना पड़ता है।कुछ प्रधानाध्यापकों नें अपने अनुभव बताते हुए कहा
कि हमें अपनी तकलीफ और परिवार की फिक्र स्कूल के गेट के बाहर छोड़कर आनी चाहिए। वे
अपने स्टॉफ को समझाते हुए कहते हैं कि घर की बात घर पर छोड़कर आनी चाहिए, तभी हम
बच्चों को बेहतर ढंग से पढ़ा सकते हैं।
घर और स्कूल के बीच में उलझने वाली स्थिति में
दोनों तरफ से हमारा ध्यान भटकने की गुंजाइश रहती है। ऐसा करना स्कूल आने वाले
बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करना होगा। अगर कोई बहुत जरूरी काम हो तो छुट्टी का
विकल्प अपनाना बेहतर होगा।ऐसा अनुभव हमको भी अपनी पढ़ाई के दिनों में हुआ है,
जिसकी पुनरावृत्ति होते हुए देख रहा हूं। इसी कारण से उनकी दशा-दिशा-मन-मनोदशा के
निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाने वाले अध्यापक के मन को जानने की कोशिश करनी
चाहिए।
आज मैं एक विचार से गुजर रहा था कि एक अध्यापक को
अपनी उदासी और उदासीनता अपने छात्रों के बीच लेकर जाना चाहिए या नहीं। काम के माहौल की निजी क्षेत्र में काफी चर्चा होती
है, लेकिन सरकारी क्षेत्र में आदेश-निर्देशों को पालन करने और पालना करवाने के लिए
मिले अधिकारों के अधीन और ऊपर वाली व्यवस्था में इसके लिए कितना स्पेश बचा हुआ है,
जानने की कोशिश करनी चाहिए, क्या अध्यापकों के डिमोटीवेशन को ऐड्रेस करने के लिए
कोई फोरम है या नहीं।
उनके डिमोटीवेशन का श्रोत क्या है, क्या उस दायरे में उनका
कम्फर्ट, पोस्टिंग, पैसे, आर्थिक लाभ इत्यादि ही मायने रखते हैं। या बच्चे, उनकी
शिक्षा का स्तर, उनका भविष्य, उनकी खुशी भी उनके लिए मायने रखते हैं या नहीं।
विशेषकर जिस मकसद के लिए वे शिक्षा के क्षेत्र में आतें हैं, ज्ञान बांटने और
लोगों को दिशा दिखाने वाले काम के लिए वे काम करने में कितनी खुशी महसूस करते हैं।
उनका एरिया ऑफ कान्सर्न क्या है
उनका एरिया ऑफ इन्फ्लुयंस क्या है
वै एरिया ऑफ कान्सर्न को लेकर कितने कान्सर्न हैं
उनका एरिया ऑफ कान्सर्न बच्चों के लर्निंग वाले
पार्ट से कितना टच करता है
उनके भविष्य को लेकर वे कितने चिंतिंत हैं
क्या वे खुद के बच्चों से उनको कम्पेयर करके देखते
हैं
उस तुलना के बाद वे खुद के काम के लिए कितना
मोटीवेशन बटोर पाते हैं
फेमिली लाइफ एण्ड अदर रिस्पांसबिलिटीज
रीडिंग हैविट की स्थिति क्या है
नया सीखने-सिखाने के लिए कितने तत्पर हैं
क्या सीख मिली पूछने और सिखाने वाली भूमिका के
अतिरिक्त एक शिक्षक के रूप में खुद सीखने और सिखाने के लिए बदलते माहौल और
परिस्थिति के अनुसार खुद को तैयार करने के लिए, आने वाली चुनौतियों का सामना करने
के लिए उनकी क्या तैयारी है, क्या उसकी कोई योजना या रूपरेखा है उनके पास
उनके शिक्षक उनको वर्तमान परिस्थिति व माहौल में
काम करने के लिए किस तरह का सपोर्ट सिस्टम मुहैया करवा रहे हैं
पॉलिसी लेवल की दुविधाओं व अनसुलझे सवालों का उनके
ऊपर क्या प्रभाव पड़ रहा है , क्या वे खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं, या बाकी
लोगों के सामने खुद को परिस्थितियों मे असहाय साबित करके सहानुभूति पाने की कोशिश
कर रहे हैं, या फिर उनको रास्ता दिखाने और खुद के लिए भी रास्ता बनाने की दिशा में
सोच-विचार कर रहे हैं। यह सवाल उनकी सामाजिक छवि और समाज में उनको काम करने के लिए
मिलने वाले मोटिवेशन तथा आंतरिक प्रेरणा के श्रोतों से जोड़ने में मददगार हो सकती
है।
वर्तमान परिस्थितियों व भावी चुनौतियों को ध्यान
में रखते हुए कहा जा सकता है कि बिना पढ़े, बिना नए ज्ञान को सीखे, नई पीढ़ी की
मंशाओ-बदलाओं-परिवर्तनों-अपेक्षाओं को समझे उनके साथ काम करना संभव नहीं होगा। ग्लोबलाइजेशन-लोकलाइजेशन-अंग्रेजी
की चुनौती-भाषा के स्तर की समस्या-शहरीकरण में पिछड़ने वाली स्थिति-इसके साथ-साथ
संस्कतिगत विभिन्नता के कारण बाकी समाजों के अलग-थलग पड़ जाने का खतरा भी है। उनके
साथ भी प्रतिस्पर्धा करनी है। इस तथ्य से वाकिफ होना बहुत जरूरी है। आरक्षण की
बैशाखी का सफर कहां तक ले जाएगा। सवर्णों के स्तर पर क्या स्थिति है...।
फालस् इकॉनमी के सहारे कब तक काम चलता
रहेगा....विकास की दौड़ में खुद को आगे रखने की होड़ में यहां के बच्चों में
आत्मविश्वास क्यों नहीं आ पाता...
खुद को पिछड़ा मानने की मानसिकता को पोषण कहां से
मिलता है कि आदिवासी पिछड़े हैं,बाकी लोग उनसे बेहतर हैं, संस्कृति व बागड़ी भाषा
के प्रति लगाव क्यों नहीं पैदा हो पाता है, या हो पा रहा है। बेहतर की तलाश में
खुद को हीन मानने वाली स्थिति से कैसे निकाला जा सकता है
आधुनिक तकनीकी कैसे फायदे के बजाय ज्यादा नुकसान
करने वाली स्थितियां उत्पन्न कर रही है, रिश्तों के बनने औऱ परिपक्व होने की
प्रक्रिया कैसे प्रभावित हुई है, इस पहलू को भी समझने की कोशिश हो सकती है।
रिश्तों व आकर्षण को एडोलसेंच एज की तरफ बढ़ती पीढ़ी कैसे लेती है...
काम औऱ पैसे के प्रति झुकाव के उदाहरण कैसे उनको
पढ़ाई वाले पहलू से काटते हैं
कैसे बच्चे पढ़ाई से कटकर काम-धंधे में लग जाते हैं
और उनकी पढ़ाई खटाई में मिल जाती है
स्कूलों का समीकरण क्या है, प्रमुख चुनौतियां-
सिंगल टीचर, मनोवृत्ति, विखरे हुए – रहने की तकलीफ – स्टॉफ की कमी, डाक वर्क का
बोझ, शिक्षणेत्तर गतिविधियों में जरूरत से ज्यादा भागीदारी......आदिवासी
मन-मानस-स्वभाव-सोच का कैसा असर पड़ता है – काम के प्रति कैसा दृष्टिकोण विकसित
होता है जैसे –होली-दीपावली पर कितने भी पैसे मिलें लोग काम छोड़कर घर पर वापस आ
जाते हैं, कुछ लोग इसे आर्थिक रूप से पिछड़े होने के बड़े कारण के रूप में देखते
हैं तो बाकी सारे लोग इसे उनकी सांस्कृतिक विशेषता व पहचान के रूप में देखते हैं –
जैसे गांव, समाज की परंपरा त्योहार, रीति-रिवाज परिवार के प्रति लगाव और प्रेम।
सामाजिक ताने-बाने की बुनावट औऱ उसकी गहरी छाप जीवन के हर क्षेत्र में....जुर्माना
और समाज से बाहर निकालने की परंपरा का प्रभाव क्यों ऐसा होता है, सगोत्र शादियों
के प्रति अस्वस्थ दृष्टिकोण, मरा घोषित करने की परंपरा, मौताड़ा-धापा-नाते-आदि का
बच्चों के मन पर प्रभाव। कषि आधारित अर्थव्यस्था- मानवीय श्रम का महत्व-जरूरत बाल
श्रम से पूरा करने की मजबूरी-जिससे बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है, स्कूल में
उनकी निरंतरता व उपस्थिति- इसके अलावा काम करने का दबाव- घर-गांव छोड़कर बाहर
निकलने का दबाव – शोषण की स्थितियों का सामना- शारीरिक-मानसिक – इसका बालमन पर
क्या प्रभाव पड़ता है- बालिका शिक्षा की स्थिति- चुनौतियां- व्यावहारिक समस्याएं व
समाधान, राजस्थान के बाकी हिस्सों से अलग स्थिति इत्यादि। महिला सशक्तीकरण व
पंचायत की भूमिका – पंचायत स्तर पर शिक्षा समिति आदि का गठन आदि तमाम विषयों पर
काफी कुछ सोचने की जरूरत है।
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