Thursday, 30 May 2013

झूठ बोलती गणित...

कितने मटके, अनुमान लगाओ !!!!
आप सभी लोगों नें कभी न कभी तो झूठ बोला ही होगा। झूठ बोलने का मौका मिलने पर उसे जरुर भुनाया होगा। झूठ बोलने की आदत विषयों को भी होती है। झूठ बोलने वाले विषयों में गणित का नाम भी शुमार होता है। आइए हम जानते हैं कि गणित कैसे झूठ बोलती है

गणित का एक नियम है "झूठ बोलने का नियम"। गणित एक खेल है, सारे खेलों की तरह इसके भी कुछ नियम हैं। जब हम गणित के समीकरण हल करते हैं तो संख्याएं समीकरण के दूसरी तरफ जाने पर अपने साथ लगे धन या ऋण के प्रतीक के विपरीत अपनी पहचान बताती है। इसे गणित का झूठ बोलना कहा जा सकता है। बच्चों को इस नियम के बारे में बताने का सबसे आसान तरीका लगा कि गणित के झूठ बोलने के नियम को समझने के लिए ध्यान आकर्षित किया जाय। 

गणित के सवाल लगाना एक खेल है -

अगर कोई अध्यापक बच्चों को इस तरीके से पढ़ा रहा हो तो बहुत सारे लोग कहेंगे कि हमारे बच्चों को झूठ बोलना सिखा रहा है। नैतिकता के पाठों पर कैंची चला रहा है। उनको जीवन के बारे में तमाम गूढ़ बातें बता रहा है। ज्ञान बांट रहा है। उनका दिमाग करप्ट कर रहा है। अध्यापकों के खिलाफ उनको भड़का रहा है। किताब लिखने वालों के बारें में उनको बता रहा है कि बड़े बच्चों को कैसे देखते हैं ? कैसे परेशान करते हैं ? उलझाने वाले सवाल गढ़ते हैं ? उनकी परीक्षा लेते हैं । नंबर देते है,  पास-फेल घोषित करते हैं। जीवन की होड़ और प्रतिस्पर्धा में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। 

उनको दुनिया की व्यावहारिकता का तकाजा पता है। वे कहते हैं कि शिक्षा के माध्यम से तुम्हें बेहतर ज़िंदगी मिल सकती है। बेहतर ज़िंदगी से उनका आशय बेहतर रोजगार के अवसरों से होता है। इसके आगे सोच पाना उनके लिए कठिन होता है। जो शिक्षा को समझते हैं, उनको लगता है कि शिक्षा के नाम पर क्या हो रहा है ? लोगों का दिमाग कैसे गढ़ा जा रहा है ? कभी-कभी लगता है कि एक मानक भाषा और मानक सोच के सांचे में उनको ढालने की फैक्ट्री सरीखे हैं, अपने स्कूल। लेकिन यह बात पूरी तरह सच न होकर एक अर्द्धसत्य है। 

बच्चों से जीवंत  संवाद की जरुरत - 

कक्षा में आदर्शवादी बातों के शोर में जीवंत संवाद की कमी काफी खटकती है। इसके कारण बच्चों की तमाम जिज्ञासाएं अपने दायरों के घोंसलों में सिमट जाती है। ऐसे माहौल में नन्हे परिंदों सरीखे बच्चों की रचनात्मकता और मौलिकता को प्रोत्साहित करने की जरुरत है। ताकि स्वतंत्रता सोच को पोषण मिल सके। जिसकी वर्तमान समय में काफी जरुरत है। इससे विविधता के प्रति सम्मान औऱ दूसरे के विचारों को सुनने की विनम्रता का भाव बच्चों में पनपेगा, जो उनको आगे के जीवन में काम आएगा।


यूनिवर्सल अप्रोच टू कनेक्ट थिंग्स -(लोकल टू ग्लोबल)

गणित के नियम सारे बच्चों के लिए एक जैसे होते हैंचाहें वे अमरीका के बच्चे होंचाहे जापान केचाहे इंग्लैण्ड केचाहे दिल्ली के या जयपुर के...। सबके लिए नियम एक जैसे होते हैं। उस पल में मैं एक जगह पर बैठे-बैठे संवाद के जरिए उनको बाकी दुनिया से जोड़ने का वह काम कर रहा था जो हर शिक्षक को करना चाहिए। लगे हाथ किताब लिखने वालों का भी जिक्र हो आया। पाठ्यपुस्तक निर्माण समिति के पन्ने से उनको रूबरु करवाया कि आपके बारे में कितने सारे लोग सोच रहे हैं कैसे उनके इस साल की पढ़ाई पिछले साल से जुड़ी हुई हैं ?

बच्चों से अपेक्षाएं - महीने भर की गर्मियों की छुट्टी में पिछली पढ़ाई का अधिकांश हिस्सा भूल जाते हैं। जो स्वाभाविक है। गलतियां उनकी नहीं है। होम वर्क मिलना चाहिए। ताकि बच्चे पढाई से जुड़े रहें। आनंद की जरूरत। कुछ बच्चे काम पर जाते हैं। शादीमामा-मामीरिश्तेदारआदि। पाठों का दोहरान करना और लिखना काफी जरुरी है। इसकी जिम्मेदारी बच्चों और उनके माता-पिता के ऊपर है। कक्षा में बच्चों को पढ़ाते समय शिक्षकों को पर्याप्त समय हीं मिले तो पाठ को पढ़ाने के तमाम रोचक तरीकों को खोज सकते हैं। बच्चे गणित को भाषा से और भाषा को आसपास के परिवेश से रोजमर्रा के जीवन से जोड़ पाएं, इसके लिए अध्यापकों को अपने स्तर पर बच्चों से संवाद करना चाहिए। ताकी निर्जीव और अमूर्त से लगने वालों पाठों में जान डाली जा सके।

लिखना क्यों जरूरी है - बच्चों से बातचीत के दौरान मैनें कहा कि मैं समझता हूं कि आपको कितना कुछ आता है ? लेकिन जब आपकी परीक्षाएं होंगी तो वहां लिखित के आधार पर आपका मूल्यांकन होगा कि आपको कितना आता है ? इसलिए लिखने का अभ्यास जरूरी है ताकि आप अपनी बात कह पाओ। मन की बात और छोटे-छोटे विषय लिखने की तैयारी भर हैं। खुद से लिखने की कोशिश करो। अपने आसपास के परिवेश के बारे में अपने अनुभवों को लिख सकते हो। इसके लिए किसी पाठ को रटने जैसी कठिनाई नहीं होगी, इसके साथ-साथ लिखने का प्रवाह बना रहेगा। जो आगे की तैयारी के लिहाज से काफी जरुरी है।


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