जीवन के
सफर में कभी-कभी वर्तमान अतीत के लम्हों में झांकने का सबब बन जाता है। आज का दिन
भी कुछ ऐसा ही था, फेलोशिप
के पांचवे बैच के साथियों ने विदाई के लम्हों जैसा माहौल बनाकर बीते दिनों की याद
ताजा कर दी।
जब मैं पहली बार फेलोशिप के सफर का हिस्सा बनने के लिए चंद्रपुर में
बैग लेकर दो जुलाई को पहुंचा था। वहां सलमान और प्रत्यूष से मिला। हमारे बाकी साथी
किसी नाटक की तैयारी कर तरहे थे। प्रवीण मुझे नाटक में हिस्सा लेने के लिए बुलाने
आया था।
चंद्रपुर
रेलवे स्टेशन पर मुझे रिसीव करने के लिए श्रद्धा, जनार्दन और संदीप भाई आए हुए थे। आज की विदाई में
उनमें से संयोग से एक व्यक्ति हमारे साथ मौजूद थे। उनका नाम
जनार्दन साल्वे है। संयोग से वे तमाम जगहों पर घूमते हुए हमारे ब्लॉक में आकर
टिके। उनकी मौजूदगी हमें अच्छी लगी कि चलो ंकोई तो हमारे साथ है, जिसे हम फेलोशिप के पहले दिन
से जानते हैं। इसके अलावा हमारे बाकी साथी शशी शेखर, अज़हर जहीर, विशाल, सुमिता, मयूरी भी मौजूद थे।
अभी हाल
में दिल्ली में प्रत्यूष से मिलने का मौका मिला, तो फेलोशिप के बीते दिनों की चर्चा हो रही थी कि
फेलोशिप में हमनें जो सीखा है,
उसे अपने व्यवहार का हिस्सा बनाते हुए कैसे अपने कार्यक्षेत्र में
लोगों से व्यवहार करना है ? ताकि हम
अपनी छाप लोगों पर छोड़ पाएं। उन्होनें कहा कि आगे का सफर कापी चुनौतीपूर्ण है।
क्योंकि वास्तविक जीवन का संघर्ष तो अब शुरु होगा। फेलोशिप में तो कंडीशंड लाइफ
होती है, जहां हम
विभिन्न परिस्थितियों में खुद को देखते-परखते हैं।
वहां बाकी साथी भी हमारे जैसी
प्रक्रिया से गुजर रहे होते हैं,
इसलिए वहां पर समन्वय स्थापित करना और आगे बढ़ना आसान होता है। लेकिन
वास्तविक और प्रोफेसनल ज़िंदगी में रोज हमारा सामना नए सवालों से होता है।
जिसके लिए हमको काफी तीव्रता से और त्वरित गति से फैसले लेने होते हैं। ऐसे माहौल
में हमारी सीख और समझ की परीक्षा होती है। जिसके लिए सतत प्रयास करते रहने की
जरुरत है। ताकि अपनी समझ साफ होती रहे और व्यवहार में परिमार्जन होता रहे।
आज की
बातचीत में नए साथियों नें हमसे सुझाव और यादगार अनुभवों पर अपनी बात रखने का मौका
दिया। तो मेरा जवाब था कि फेलोशिप में हमने सीखा है कि सुझाव बिना मांगे नहीं देने
चाहिए और दूसरी बात कि सुझाव देने के साथ-साथ ग्रहण करने की भी चीज है। मैनें कहा
कि तथ्यों को स्वीकार करिए कि स्कूल में इतने कमरें हैं, इतने बच्चे हैं, इतने अध्यापक हैं, इतने संसाधन हैं, प्रधानाध्यापक जी कैसे हैं
और रिश्ते वाले पहलू पर नए सिरे से अपना अनुभव बनाने की कोशिश करिए। वहां पर हमारे
विचारों की व्यक्तिनिष्ठता (सबजेक्टीविटी) से आप लोग आजाद रहिए, बस यही बात मौखिक और लिखित
रुप में कहनी है। समय और परिस्थिति के अनुसार रिश्ते बदलते हैं, व्यक्ति में बदलाव होते
हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए अपना काम करते रहिए। लोगों को साथ लेकर चलिए।
लेकिन ध्यान रहे कि अंततः एक टीम के साथ-साथ बेहतरीन खिलाड़ी के रूप में अपनी
पहचान बनाने का प्रयास करना है।
इसके बाद
फेलोशिप में संयुक्त रुप से पत्रिका निकालने के पहले प्रयासों के ऊपर बात हुई। नए
साथी चाहते हैं कि कि उसको आगे लेकर जाएं। ताकि अपने लिखने के कौशल का जमीनी
अनुभवों को लिपिबद्ध करने में इस्तेनाल कर सकें ताकि बाहर आदिवासी अंचल के बारे
में बनी समझ को लोगों के साथ साझा कर सकें। इसके ऊपर भी बात हुई कि कैसे ब्लॉग
जैसे माध्यमों का उपयोग करते हुए,
लिखने के सफर को आगे बढ़ाया जा सकता है।
पत्रिका निकालने के दिनों की
व्यस्तता से फेलोशिप के सबसे यादगार पलों की स्मृति हो आयी, जब मैंनें खुद पहल करते हुए
किसी काम को सफलता के साथ अंजाम तक पहुंचाया। वह भी निर्धारित समय सीमा के भीतर।
कुछ साथियों के लेखों के न छप पाने का अफसोस आज भी है। कहा जा सकता है कि कुछ
लम्हे जीवन में सिर्फ एक बार आते हैं, उनका रिटेक और रिमेक नहीं होता। पत्रिका निकालने और पूरा करने का पल
ऐसे ही खास पलों में से एक है। उस दिन को याद करके आगे के सफर के लिए प्रेरणा
मिलती है कि कैसे अपने सफर को आगे ले जाना है।
आज विशाल
से आगे के जीवन सफर पर चर्चा हो रही थी। आगे की ज़िंदगी को कैसे देख
रहे हो ? तो मेंरा
जवाब था कि अभी दो साल तो सिर्फ करियर के ऊपर ध्यान देना है, ताकि आने वाली नई
जिम्मेदारियों को सक्रियता के साथ निभा सकूं। इस पहलू पर स्थाइत्व के साथ ही आगे
के जीवन में स्थाइत्व के बारे में सोचना है। ताकि न्यून्तम जरुरतों वाली ज़िंदगी
का सफर सक्रियता के साथ आगे बढ़ता रहूं और जीवन में नई राहों पर चलते हुए, सफर का इतिहास लिखता रहूं।
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