Saturday, 29 June 2013

और बताओ की बात.......

....................और बताओ, और क्या हाल है, और क्या चल रहा है, कोई नई ख़बर नही. दुनिया में जितना कुछ भी बड़ा और रचनात्मक हुआ है. उसे कुछ हटकर करने वालों ने किया है. दिमाग विकसित करने से क्या होगा, दिमाग विकसित करने के लिए मन को तरह-तरह के अनुभवों, घटनाओं, लोगों और किताबों से मिलते रहना चाहिए. विचारों की सरिता में बहते-बहते मन में फेलोशिप की डिजाइन के बारे में सोच रहा था. लोगों से बात करते समय तरह-तरह की बातें मन में कौंधती है. लोग सोचते हैं कि यह बताऊं कि नहीं. वह बताऊं कि नहीं. लेकिन अनकांसियसली होने वाली बातों का अपना आनंद होता है.

घर पर रहते हुए फेलोशिप के अनुभवों को कैसे लागू किया जा सकता है. लगता है कि फेलोशिप भी दायरा बनने लगी है. लेकिन बाहरी दुनिया के अनुभवों के साथ मिलकर पुराने अनुभवों को परिपक्व होने का मौका मिल रहा है. जो पढ़-लिखे नहीं है. जो भाषा के जादुई संसार से दृश्य और श्रव्य माध्यमों से परिचित है. लेकिन लिखने और पढ़ने की सुख-तकलीफ से अपरिचित हैं. अब तो वर्चुअल दुनिया भी लोगों के मनोरंजन का साधन बन गई है. लोग फोन पर मैसेज देखकर मुस्कुराते हैं, फेसबुक स्टेट्स देखकर हंसते हैं तो लगता है कि लिखने में असर तो है.

Thursday, 13 June 2013

भाषा की कठिनाई का सवाल....

भाषा की कठिनता पर भी काफी सवाल उठ सकते हैं, लेकिन भाषा को सरल बनाने की वकालत सामान्य लोगों की तरफ से उठ रही है. उस बात को मीडिया में काफी जगह मिल रही है. कुछ साल पहले एक रेडियो रिपोर्ट सुनी थी, जिसमें अंग्रेजी बोलने वाले देशों में लोग अंग्रेजी को आसान बनाने की मांग उठा रहे थे. तब हमारे यहां के लोग हिंदी प्रेम के पाठ में डूबे हुए थे. 

हिंदी पढ़ने के लिए किताबों की जगह कामिक्स मिली, चंपक, नंदन. चंदामामा, लोटपोट  मिले. गीता प्रेस के कल्याण का विशेषांक और तमाम अंक भी मिले. कल्याण की भाषा में कठिनता थी. संस्कृत पढ़ने के नाते, थोड़ा बहुत बूझ लेते थे कि माज़रा क्या है, लेकिन आज सोचकर लगता है कि सिवाय कहानियों के मुझे कुछ भी समझ में नहीं आता था. 

देवी-देवताओं के आपसी प्रेम प्रसंग, आपसी फूट और लोभ के साथ-साथ युद्ध की कहानियां पढ़ने को मिली. उनमें पात्रों का अतिरेकी वर्णन तुलसीदास के रामचरित मानस में पढ़ने को मिला. उससे क्षेत्रिय बोली के नाते सहज रिश्ता तो कायम हो गया. लेकतिन मानवीकरण की जगह भगवानीकरण से बाद के वर्षों में सहमति जाती रही. बाद एक और दल से मिलने का मौका मिला

जिसका कहना और मानना था कि असली भारत तो कुछ और हो गया है. महान तो वह कई सालों पहले था. लेकिन तब भी पिछड़ा हुआ था. भोजपुरी बोली में देश की स्थिति परिस्थिति, साहित्य, कला, मनोरंजन, राजनीति पर धाराप्रवाह होने वाली बातचीत को सुनकर हैरानी हो रही थी कि अरे क्षेत्रिय बोली में इतना सामर्थ्य है, लेकिन इसके बारे में तो कभी पुरजोर तरीके से किसी ने आवाज नहीं उठाई.

लोग यही कहते रहे किु हिंदी देश को जोड़ने वाली सेतु है. अतः इस भाषा को पूरे देश के लोगों को सीखना चाहिए. दक्षिण के लोगों का हिंदी थोपने के प्रति जो प्रतिक्रिया हुई, वह वहां के राजनीतिज्ञों के माध्यम से लोगों के रगों में उत्तर और मध्य भारतीय लोगों की नसों में  बहने वाले हिंदी प्रेम के ठीक विपरीत थी. एक तरफ के लोगों को हिंदी भाषा से जितना लगाव था, दूसरी तरफ के लोगों के मन में उसी के बराबर नफ़रत ने जगह बना ली. 

बनारस में काशी विश्वनाथ के दर्शन को दक्षिण भारत से बहुसंख्यक लोग आते हैं. वहां की भीड़ में हम भी घुस जाते थे, ताकि दर्शन करें और पर्व के आनंद का भागीदार बने. वहां हमने दक्षिण के लोगों के चेहरों की तनी हुई भृकुटियां देखीं....वे हिंदी में लिखे साइन बोर्ड - विज्ञापन पट्टिका (हिंदी प्रेमी आहत न हो जायं)  कह रहे थे....ईईईईईईईई, इतनी हिंदी. 

उस समय मैं बीए की पढ़ाई कर रहा था. एक आदर्शवादी, जोश से भरे, अपनी बात साबित कर देने वाले युवाओं की सारी खूबियां मुझमें भी थीं. लेकिन अगर मुझे बचपन से अंग्रेजी के अच्छे अध्यापक मिले, जिनकी अंग्रेजी और हिंदी दोनों बेहतर थी. कुछ लोगों की हिंदी तो वाकई धारा प्रवाह थी. वे अध्यापक बच्चों से संवाद करते थे. अंग्रेजी को हिंदी का दोस्त मानकर पढ़ाते थे. 

दोनों के रिश्तों को न समझ पाने वालों को अपनी बात कहने के तरीके से मोह लेते थे. आठवीं घंटी में अंग्रेजी का पीरियड होता था. लेकिन कोई भी बच्चा ूबागकर नहीं जाता था, क्योंकि उन्हे पता था कि आज कुरेशी सर विलियम वर्डसवर्थ की लूसी ग्रे पढ़ाने वाले हैं. आज कक्षा में भयानक तूफान आएगा, और लूसी उसमें फंस जाएगी. 

उसके माता-पिता उसे परेशान होकर खोजेंगे, लेकिन उसकी कोई पता नहीं मिलेगा. बर्फीले तूफान की कल्पना से हमारे रोम-रोम कांप उठते थे. जबकि हमारे यहां हांड़ कंपा देने वाली कड़ाके की सर्दी पड़ती है. लेकिन बर्फीले तूफान का नज़ारा तो, गुप्तकाशी उत्तरांचल जाने के बाद महसूस किया कि कि ऐसी भी कोई चीज होती है. मैनें अंग्रेजी बोलने की कोंचिग में बात करना सीखा.

अपनी बात को आत्मविश्वास के साथ रखना सीखा. एक समय तक मानसिक अनुवाद का ऐसा चश्का था कि कोई भी हिंदी की किताब हो, उसे पढ़ना और अंग्रेजी में अनुवाद करके श्रोताओं तक पहुंचा देना, मुझे दाएं,-बाएं हाथ का खेल लगता था. लेकिन इस सहजता को चीज़ों की गहराई में उतरने वाले जिज्ञासु मन ने चुनौती दी. सफर आगे बढ़ा. 

बहुत सारे मुद्दों पर पढ़ना शुरु किया. मैनेजमेंट के दौर में बेहतर अंग्रेजी न जानने वाले छात्र के रुप में लगता था कि कुछ कमी है.जैसे किसी जानवर के पूंछ न हो. कॉल सेंटर के पहले नौकरी टाइप साक्षात्कार और बाद में लखनऊ के एक एमबीए कराने वाले कॉलेज के साक्षात्कार में सुनने को मिला कि आपकी अंग्रेजी अच्छी नहीं है. इसलिए आपको प्रवेश नहीं दे सकते. वहां के प्रमुख ने कभी बीएचयू से योग का सर्टिफिकेट कोर्स किया था, उन्होनें अपने परिचय में उसे भी शामिल किया था.

तो लगा कि शायद बीएचयू के लिए उनके मन में कोई सॉफ्ट कार्नर होगा कि भाषा ही तो सीखनी है, सीख जाएगा. लेकिन बाजार के अंदाज को देखते हुए, उनको लगा होगा कि बाजार में इसकी बोली कम लगेगी, इसलिए किसी और को ले लो, जो ऊंचे दामों पर बिके ताकि प्लेसमेंट रिपोर्ट और बेहतर हो....ताकि अगले साल से और कमाई हो सके. 

विरोधाभाषी संयोग से वहीं पर मैनें भोपाल के लोकप्रिय रुप से विवादास्पद माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए परीक्षा दी. मेरा नाम चयन सूची में भी आया. वेटिंग लिस्ट में भी रहने का सुख भोगा. अंत में प्रवेश भी मिला. उस समय साहित्य और राजनीति में पकड़ रखने वाले भी पत्रकारिता में प्रवेश को आतुर थे. एक साथी तो संघ की विचारधारा के प्रति समर्पित थे. 

तो दूसरे मित्र वामपंथी विचारधारा का झंडा बुलंद कर रहे थे. हम वहां पर न्युट्रल सदस्य के रुप में जाने जाते थे. जहां पर लगा कि अपनी बात रखनी चाहिए, स्टैण्ड लेना चाहिए, लिया. बिना किसी विचार की धारा का खूंटा गाड़े, उसकी सार्वजनिक घोषणा किए, अपना काम करते रहे. कभी-कभी तो साथियों से इस बात पर बात भी हुई कि आप खुद को किस धारा का मानते हैं....तो लगा कि वे जिस धारा की बात कर रहे हैं. उसमें बहने का हुनर अपने पास है नहीं.


हम तो सीधे-सादे इंसान हैं, जिनको गांव वाले कमजोर समझकर गांधी कहकर बुलाते थे. उनकी नज़रों में गांधी का यही मतलब था. संयोग से गांधी फेलोशिप मिली तो बामपंथी धारा के पत्रकार और कुछ वरिष्ठ साथियों का कहना था कि गांधीवाद पर तो इनकी पकड़ है. उनकी भी गांधी को समझने के ऊपर पकड़ पर मुझे संदेह है, लेकिन उनकी बौद्धिक जड़ता के बारे में कोई संदेह नहीं था. 

अभी के बारे में कुछ कहना कठिन है. लेकिन संयोग से कुछ ऐसे वरिष्ठ साथी मित्र मिले, जिन्होनें कहा कि पता नहीं लोग विचारधारा कैसे तय कर लेते हैं, इस उम्र में तो जीवन के छोटे-मोटे फैसले करना भी अपने वश की बात नहीं लगती. उनसे संवाद में पत्रकारिता के बारे में सवाल-जवाब से सीखा है. उनका कहना था कि कंटेट. फार्म और शैली का समन्वय जरुरी है ताकि किसी विषय को रोचकता के साथ प्रस्तुत किया जा सके.

Friday, 31 May 2013

पत्रकारिता और फेलोशिप के बीच पुल बनाती यादें...


फतह सागर झील के किनारे बीते दिनों को याद करते हुए
मेरे मन के भीतर-भीतर कुछ हलचल हो रही है। ऐसा लग रहा है जैसे कुछ बदल रहा है। अतीत के दृश्यों की तुलना वर्तमान से हो रही है। मैं अतीत और वर्तमान की होड़ में शामिल हुए बिना सापेक्ष भाव से चीजों को देख रहा हूं। समझने की कोशिश का प्रयास कर रहा हूं कि आखिर इतनी हलचल क्युं है ? बरोठी और मेट्रो की अज़ीब सी तुलना मन में चल रही है ?

बैलगाड़ी और मेट्रो, मिनी शॉपिंग मॉल और बिखरी सी दुकानें, ट्रेन की अथाह भीड़ और भागमभाग। दिल्ली को करीब से देखने और जानने का मौका मिला है। धीरे-धीरे दिल्ली की नब्ज़ पकड़ने की कोशिश करते हैं ताकि समझ पाएं कि दिल्ली क्या चीज हैं ? राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में होने का मतलब क्या है ? कल से परिचय के साथ लिखने के प्रोफेशन में पदार्पण हो जाएगा। देखते हैं कि आठ घंटे लिखने के मतलब क्या होते हैं, ऐसे अभ्यास की दरकार शायद लंबे समय से थी ?

अगर मुझसे सवाल होता है कि किस डेस्क पर काम करना चाहते हो तो शायद मेरे लिए अभी जवाब देना काफी कठिन होगा। पहले तो मुझे काम के मौहाल और जिम्मेदारियों को समझने के साथ-साथ तकनीक को समझना होगा, जिसके माध्यम से मेरे शब्दों को पाठकों तक जाने और वर्चुअल दुनिया के आसमान पर छा जाने का मौका मिलेगा। सफर रोमांचक हैं। मज़ेदार भी।

मैं अलग तरह से लिखने वाला हूं। मेरी सोच बहुत सारे लोगों से फर्क होगी। लेकिन समझने के लिए मेरी तरफ से पहल होगी। सीखने वाले अप्रोच के साथ पहल करनी है। सबके साथ मित्रवत व्यवहार रखना है।  बाकी देखते हैं। एक विचार मेरे मन में बार-बार आ रहा है कि मैं अलग तरह का पत्रकारिता करना चाहुंगा। तमाम तरह के पूर्वाग्रहों और आग्रहों से मुक्त। एक नई सोच के साथ सामान्य इंसान की स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति के साथ कदम-ताल करते हुए। बतौर माध्यम उनको शिक्षित, जागरूक और मनोरंजन का स्पेश देने औऱ संवाद करने की पहल करने की कोशिश करुंगा। भविष्य की चुनौतियों को समझते हुए, अपनी तैयारी करते हुए, अपनी पहचान बनाने की कोशिश करुंगा। 

काम करते समय रचनात्मक अवसरों को पहचानने के साथ उनको हक़ीकत में ढालने का समय आ गया है।    
डर लग रहा है क्या
डर से ज्यादा हैरानी हो रही है
एक तुलना सी चल रही है गांव और मेट्रो सिटी की
तुलना करोगे तो बहुत दुःख होगा
इसकी संभावना तो है, लेकिन चीजों को बहुत वस्तुनिष्ठ तरीके से देख रहा हूं।
किताबों के तीन बैग भर गए, कैसे लेकर जाओगे
किताबों का वज़न कपड़ों से बहुत ज्यादा होता है
किताबों की सेल लगवा देगा
मुकेश कह रहा था कि इतनी किताबें पढ़कर करता क्या हूं
मैनें जवाब दिया बौद्धिक बकैती के लिए
तुम दुःखी से लग रहे हो
अपने बारे में लग रहा है कि उस दुनिया में फंस गई, जहां नहीं जाना था
एक तरीके का फंसना ही है, मेट्रो में जाने के बाद वापसी नहीं होता
लोग अपनी बातें साझा करेंगे, ऐसा न हो कि हमारा ब्रेनवाश हो जाएगा
लोगों से मिलने में खतरा है, 
मुझे लगता है कि अगर आप लोगों से मिलते हैं तो आप उनको समझ पाएंगे
फॉलों करना इतना आसन नहीं, शायद नहीं और शायद हां भी
लोग बुरे नहीं हैं, उनकी परिस्थितियां हैं
तुम जैसी हो वैसा रहना चाहती हो हां
मुझे पता नहीं है कि मैं कौन हूं
हम, हैं ही नहीं, जो हम हैं
हम बदलते रहते हैं
मौसम, विचार, शरीर बदलते रहते है
बदलाव बहुत स्वाभाविक है
हम बहुत क्रूर भी हो सकते हैं
अभी बहुत प्यार करते हैं
कुछ अच्छा होगा और कुछ बुरा होगा
कुछ मत करो, ऐसी स्थिति आएगी कैसे
बदलती ज़िंदगी अज़ीब सी है
मैं और मेरा सेल्फ
भागना भी कह सकते हैं
सामना करने का अपना तरीका है

शाम को जब ट्रेन में दिल्ली आने के लिए बैठा था, तो भविष्य के ख़्याल मन में उमड़ रहे थे। जिसमें फेलोशिप के दिनों का इतिहास और मीडिया के भविष्य के तमाम सवाल-जवाब और उम्मीदों के उजाले टिमटिमा रहे थे। सफर के लिए बहुत सारे लोगों का शुक्रिया कहना चाहता था, लेकिन एक पल में सबका आभार व्यक्त करना शाब्दिक तौर भी संभव नहीं होता।

मन के आभार के लिए तो वक़्त की दरकार होती ही है। फिर भी कुछ लोगों का प्रत्यक्ष तौर पर थैंक्स अ लॉट कहने का मौका हाथ से जाने नहीं दिया। उन्होनें भी बेहतर भविष्य के लिए शुभकामनाएं और मंज़िल के तरफ बढ़ने को प्रेरित किया। बिच्छीवाड़ा के सभी दोस्तों, अजय, मुकेश और बाबूराम की बहुत याद आ रही थी। उनके बिना फेलोशिप के लगभग दो साल और बेहतर शुरुआत के साथ अंत के बारे में सोचना संभव नहीं होता। शाम को ट्रेन में बच्चों की मुस्कुराहटों के साथ सहज संवाद हो रहा था। मुस्कुराहटें कितनी संक्रामक होती हैं, तेजी से एक चेहरे से फिसलकर दूसरे चेहरे पर फूलों की तरह खिल जाती है।



ट्रेन में अंकित से मिलना हुआ। अंकित कह रहा था कि उसके पास में बैठी एक बच्ची अपने पापा से पूछ रही थी कि एक पटरी पर दो ट्रेनें चल सकती हैं क्या पापा नें गुस्से सें कहा पागल हो गई हो क्या भला एक पटरी पर दो ट्रेनें कैसे चल सकती हैं मम्मी नें स्थिति को संभालते हुए कहा कि बच्ची के मासूम सवालों से अरे क्यों नारज होते हैं ? आगे पीछे तो दो ट्रेने आराम से चल सकती हैं। अंकित अपने फेलोशिप के अनुभवों को साझा करते हुए कह रहा था कि पहले बच्चे उसके लिए सिर्फ शरीर भर थे। जिनको शारीरिक उछल-कूद के द्वारा मनोरंजन करने की कोशिश करता है।

लेकिन अब बच्चे के मन वाले पहलू को भी ध्यान में रखकर उसे खुशी देने की कोशिश करता है। बच्चों को समझने का मौका वाकई स्कूल के बच्चों के साथ संवाद के दौरान मिलता है। आगे के सफर के लिए उसकी शुभकामनाएं मिली और उसने कहा कि लिखने का सिलसिला सतत आगे भी जारी रहेगा। आखिरी सत्र के दौरान कुछ साथियों से विछड़ने की उसकी तकलीफ चेहरों से ज़ाहिर हो रही थी। तो मैनें कहा कि किसी करीबी दोस़्त का जाना हमें कमजोर करता है तो मज़बूत होने का मौका भी देता है। खुद के अस्तित्व को नए सिरे से समेटने का मौका देता है। अजय भाई के काम के प्रति लगन, मेहनत, समय से होनें और परवाह करने की मासूमियत की वह मन से तारीफ कर रहा था।

उसकी बातों से उसकी तकलीफ ज़ाहिर हो रही थी कि संघर्ष करने वाले इंसान को अपने बारे में बोलने का मौका कम मिलता है, इसलिए वह अपनी बात रखना चाहता है। संवाद के अवसरों की समानता वाली बात के पक्ष में उसके तर्क सटीक थे। बातचीत के बाद में सोने के लिए ऊपर की बर्थ पर वापस आ गया। ट्रेन चित्तौड़गढ़ के बाद भीलवाड़ा पार कर रही थी। भीलवाड़ा के नाम से लग रहा था कि कितनी अज़ीब सी जगह होगी। लेकिन वहां तो चौड़ी सड़कें थी, रौशनी से नहाई हुई और गांवों के मुकाबले पक्के मकान थे। देखकर लगा कि नाम से न जान कैसी तस्वीर हम मन में बना लेते हैं, लेकिन वास्तविक हकीकत कुछ औऱ ही होती है।  

Agenda for education...

I want to work in the education sector on curriculum designing and pedagogy implementation. I think that I can contribute in this domain with my learning mindset, innovative thinking and urge for better articulation of ideas in a simplest way to communicate. There is a strong need to build strong perspective on education among teachers and at the same time they need to sensitize towards children’s need.

I have deep interest in Hindi language and can work on improving writing and communication skill in that language. This will support teachers to teach their students in a better way and they can be able to handle this task with needed expertise and sensitivity while teaching language in classroom. This part also caters others dimension of cognitive development like ability to think, listen, speak and connecting the real experience with the current questions to find solution of the problems of life.

Language part also covers the ability to visualize about future and prediction of events in one’s life. During my fellowship I took deep interest in the strong presence of Pass book in primary education system from class 3rd to 8th. I found that this is adversely affecting the student’s ability to think and answer a question. If they get a question to solve they copy from Pass Book and bring it back to teacher. In such situation the real evaluation of the students is missing and the answer of Pass Book is being evaluated and this is not going to support the student’s development.

Students can write in a better way but they are not able to read and understand the written text in their copy. This situation demands more efforts from the language teacher and he need to aware about such problems and be ready to provide solution in coming future. This will yield in better learning level of the students and they will be more confident about their own answer gained directly from text book prescribed in the syllabus.

The library needs to be strengthened to make students aware of the magic of written language in books. This will inspire children to read book of their own. Once they got the taste of reading they will continue this habit in coming life. This is certain that this reading habit will impact their life the way they think and approach life situations to resolve it.   

क्यों उदास हैं शिक्षक


मैं स्कूल की तरफ से वापस लौट रहा था। आते समय मेरी नजरें कक्षाओं के गेट पर बैठे शिक्षकों के ऊपर टिक गईं। वे कक्षा के बाहर अपनी कुर्सियों पर खामोश और उदास बैठे थे। ऐसी मनोस्थिति देखकर हैरानी सी हुई कि आखिर बात क्या है? क्या वे अपने काम से खुश नहीं है या फिर स्कूल के माहौल के कारण उदास हैं पढ़ने-पढ़ाने के घंटों का उनके ऊपर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है या फिर कोई और बात है जो शिक्षकों की उदासी की वज़ह बनती है।

इन कारणों के पड़ताल में जाने का मौका मिला तो मैनें शिक्षकों से पूछा कि वे अपने काम से खुश हैं या नहीं? इस सवाला का मिलाजुला सा जवाब सुनने को मिला। कुछ शिक्षकों का कहना है कि वे लोग अपने काम से संतुष्ट नहीं हैं जो जीवन में कुछ और बनना चाहते थे। जिन्होनें मेडिकल, सिविल और इंजीनियरिंग की तैयारी करी। लेकिम अपने क्षेत्र में सफलता के अभाव में रोगजगार के रूप में शिक्षक के पेशे का चयन कर लिया।

तो कुछ शिक्षकों का मानना है कि वे अपने काम से पूरे खुश हैं। कोई शिक्षक उदास नहीं है। लेकिन जमीनी हालात उनकी असंतुष्टि और दुःख को सामने ले आते हैं। कुछ शिक्षकों में प्रेरणा का अभाव है। तो काम करने वालों को लोगों के सहयोग कीजगह प्रतिकार के कारण तकलीफ होती है। कुछ शिक्षक पढ़ाई के अतिरिक्त स्कूलों में होनें वाले तमाम कामों से परेशान हैं। जिसमें डाक बनाने से लेकर, पशुगणना, जनगणना, आधार कार्ड और मतदाता सूची बनाने जैसे तमाम काम है।
कुछ शिक्षक स्कूलों में निर्माण के काम की जिम्मेदारियों से भी परेशान हैं।

उनका कहना है कि निर्माण की जिम्मेदारी एसएमसी और समुदाय की होनी चाहिए। इसके साथ-साथ जवाबदेही भी उनकी होनी चाहिए। वर्तमान में जवाबदेही तो हमारी होती है, लेकिन काम करवाने के लिए एसएमसी और समुदाय का सहयोग लेना जरूरी है। इसके कारण कमीशन मांगने की घटनाओं का सामना शिक्षकों को करना पड़ता है। कुछ सदस्य तो बिना पैसे के किसी चेक पर हस्ताक्षर नहीं करते।

उनको लगता है कि हर खरीददारी और काम में पैसे का बंटवारा होना चाहिए। यहां भ्रष्टाचार की बात तो स्वीकार्य है। समुदाय से इतर शिक्षक अपनी शिक्षा व्यवस्था में कमीशन खाने की प्रवृत्ति से परेशान हैं। उनका कहना है कि एक काम के बदले कई सारे लोग कमीशन के लिए मुंह ताकते हैं। काम में ईमानदारी बरतो तो भी बीस प्रतिशत जेब से देने पड़ते हैं। लोग डर के नाते सवाल नहीं उठाते। लेकिन परेशान सारे लोग हैं।

इस कारण से कुछ शिक्षकों नें स्कूल के लिए एसएसए से तमाम बजट आने के बाद भी निर्माण कार्य को हाथ नहीं लगाया कि दलाली में कौन हाथ काला करे। इससे बेहतर है कि जैसी स्थिति है, उसी में संतुष्ट रहा जाय। काम न करने वाले ऐसे लोगों को बाकी लोग यथास्थितिवादी और अव्यावहारिक मानते हैं। वे कहते हैं कि जमाने के अनुसार चलने से काम होते हैं तो उसके खिलाफ चलने की जरूरत क्या है ?

ऐसे में सिर्फ परीक्षा प्रणाली को बेहतर बनाने, सतत मूल्यांकन करने और भयमुक्त वातावरण बनाने की बात से शिक्षा में बदलाव की उम्मीद कितनी सही है? प्राथमिक शिक्षा में प्रशासनिक स्तर भी तमाम सुधारों की जरूरत है। उसके अभाव में मानसिकता में खाने-पीने की बात पनपती रहेगी और बदलाव की जगह यथास्थिति कायम रहेगी। जिसमें बदलाव लाना स्कूल की भौतिक संरचना से ज्यादा चुनौतीपूर्ण है।

जब तक लोगों की सोच में बदलाव नहीं होता। तब तक स्कूलों के बदलाव का लक्ष्य हासिल करना बेहत कठिन है। शिक्षा में बदलाव के नाम पर बहने वाला पैसा, भ्रष्टाचार और कमीशन की गलियों में गुम हो जाएगा। ऐसे में बदलाव की तमाम रणनीतियों में सुधार की जरूरत है। जिसकी पहल सरकारी स्तर पर होनी चाहिए। सिर्फ बाहरी दबाव से बात नहीं बनेगी। लेकिन सुधारों की राह में शिक्षा में राजनीति का दखल एक बड़ा रोड़ा है।

मेरे सोचने का सिलसिला शिक्षकों की स्थिति से बाहर बच्चों के दायरे में प्रवेश कर गया। मन में एक सहज सा सवाल उठा कि अगर स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक उदास हैं, तो कमरों में बैठे उन बच्चों का क्या हाल होगा? क्या वे भी शिक्षकों की मनःस्थिति से प्रभावित होते हैं। अगर हां तो क्या शिक्षकों को अपनी उदासी और उदासीनता बच्चों के बीच लेकर जाना चाहिए?

शिक्षकों की मनःस्थिति का छात्रों के मनोबल पर तत्काल और दीर्घकालिक असर पड़ता है। बच्चे शीघ्र ही अध्यापकों के मन की बात ताड़ लेते हैं। ऐसे में बच्चों का व्यवहार प्रभावित होता है। जो बच्चे समझ नहीं पाते की दूसरी तरफ क्या चल रहा है ? वे अपने तरीके से पेश आते हैं। जिसके कारण अध्यापकों का व्यवहार भी प्रभावित होता है। हो सकता है ऐसी स्थिति में वे गुस्से से पेश आएं।

कभी किसी बच्चे नें दूसरे बच्चे को मार दिया। वह रोता हुआ उनके पास आता है तो क्या निर्णय करना है ? रोने वाले बच्चे को कैसे शांत कराना है पीटने वाले बच्चे के साथ कैसे पेश आना है ताकि रोने वाले को सांत्वना मिले कि उसकी बात सुनी गई है। ऐसी तमाम नयी-नयी परिस्थितियों का सामना एक शिक्षक को करना पड़ता है।कुछ प्रधानाध्यापकों नें अपने अनुभव बताते हुए कहा कि हमें अपनी तकलीफ और परिवार की फिक्र स्कूल के गेट के बाहर छोड़कर आनी चाहिए। वे अपने स्टॉफ को समझाते हुए कहते हैं कि घर की बात घर पर छोड़कर आनी चाहिए, तभी हम बच्चों को बेहतर ढंग से पढ़ा सकते हैं।

घर और स्कूल के बीच में उलझने वाली स्थिति में दोनों तरफ से हमारा ध्यान भटकने की गुंजाइश रहती है। ऐसा करना स्कूल आने वाले बच्चों के भविष्य से खिलवाड़ करना होगा। अगर कोई बहुत जरूरी काम हो तो छुट्टी का विकल्प अपनाना बेहतर होगा।ऐसा अनुभव हमको भी अपनी पढ़ाई के दिनों में हुआ है, जिसकी पुनरावृत्ति होते हुए देख रहा हूं। इसी कारण से उनकी दशा-दिशा-मन-मनोदशा के निर्माण में सक्रिय भूमिका निभाने वाले अध्यापक के मन को जानने की कोशिश करनी चाहिए।

आज मैं एक विचार से गुजर रहा था कि एक अध्यापक को अपनी उदासी और उदासीनता अपने छात्रों के बीच लेकर जाना चाहिए या नहीं। काम के माहौल की निजी क्षेत्र में काफी चर्चा होती है, लेकिन सरकारी क्षेत्र में आदेश-निर्देशों को पालन करने और पालना करवाने के लिए मिले अधिकारों के अधीन और ऊपर वाली व्यवस्था में इसके लिए कितना स्पेश बचा हुआ है, जानने की कोशिश करनी चाहिए, क्या अध्यापकों के डिमोटीवेशन को ऐड्रेस करने के लिए कोई फोरम है या नहीं। 

उनके डिमोटीवेशन का श्रोत क्या है, क्या उस दायरे में उनका कम्फर्ट, पोस्टिंग, पैसे, आर्थिक लाभ इत्यादि ही मायने रखते हैं। या बच्चे, उनकी शिक्षा का स्तर, उनका भविष्य, उनकी खुशी भी उनके लिए मायने रखते हैं या नहीं। विशेषकर जिस मकसद के लिए वे शिक्षा के क्षेत्र में आतें हैं, ज्ञान बांटने और लोगों को दिशा दिखाने वाले काम के लिए वे काम करने में कितनी खुशी महसूस करते हैं।
उनका एरिया ऑफ कान्सर्न क्या है
उनका एरिया ऑफ इन्फ्लुयंस क्या है
वै एरिया ऑफ कान्सर्न को लेकर कितने कान्सर्न हैं
उनका एरिया ऑफ कान्सर्न बच्चों के लर्निंग वाले पार्ट से कितना टच करता है
उनके भविष्य को लेकर वे कितने चिंतिंत हैं
क्या वे खुद के बच्चों से उनको कम्पेयर करके देखते हैं
उस तुलना के बाद वे खुद के काम के लिए कितना मोटीवेशन बटोर पाते हैं
फेमिली लाइफ एण्ड अदर रिस्पांसबिलिटीज
रीडिंग हैविट की स्थिति क्या है
नया सीखने-सिखाने के लिए कितने तत्पर हैं
क्या सीख मिली पूछने और सिखाने वाली भूमिका के अतिरिक्त एक शिक्षक के रूप में खुद सीखने और सिखाने के लिए बदलते माहौल और परिस्थिति के अनुसार खुद को तैयार करने के लिए, आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए उनकी क्या तैयारी है, क्या उसकी कोई योजना या रूपरेखा है उनके पास
उनके शिक्षक उनको वर्तमान परिस्थिति व माहौल में काम करने के लिए किस तरह का सपोर्ट सिस्टम मुहैया करवा रहे हैं
पॉलिसी लेवल की दुविधाओं व अनसुलझे सवालों का उनके ऊपर क्या प्रभाव पड़ रहा है , क्या वे खुद को असहाय महसूस कर रहे हैं, या बाकी लोगों के सामने खुद को परिस्थितियों मे असहाय साबित करके सहानुभूति पाने की कोशिश कर रहे हैं, या फिर उनको रास्ता दिखाने और खुद के लिए भी रास्ता बनाने की दिशा में सोच-विचार कर रहे हैं। यह सवाल उनकी सामाजिक छवि और समाज में उनको काम करने के लिए मिलने वाले मोटिवेशन तथा आंतरिक प्रेरणा के श्रोतों से जोड़ने में मददगार हो सकती है।
वर्तमान परिस्थितियों व भावी चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि बिना पढ़े, बिना नए ज्ञान को सीखे, नई पीढ़ी की मंशाओ-बदलाओं-परिवर्तनों-अपेक्षाओं को समझे उनके साथ काम करना संभव नहीं होगा। ग्लोबलाइजेशन-लोकलाइजेशन-अंग्रेजी की चुनौती-भाषा के स्तर की समस्या-शहरीकरण में पिछड़ने वाली स्थिति-इसके साथ-साथ संस्कतिगत विभिन्नता के कारण बाकी समाजों के अलग-थलग पड़ जाने का खतरा भी है। उनके साथ भी प्रतिस्पर्धा करनी है। इस तथ्य से वाकिफ होना बहुत जरूरी है। आरक्षण की बैशाखी का सफर कहां तक ले जाएगा। सवर्णों के स्तर पर क्या स्थिति है...।
फालस् इकॉनमी के सहारे कब तक काम चलता रहेगा....विकास की दौड़ में खुद को आगे रखने की होड़ में यहां के बच्चों में आत्मविश्वास क्यों नहीं आ पाता...
खुद को पिछड़ा मानने की मानसिकता को पोषण कहां से मिलता है कि आदिवासी पिछड़े हैं,बाकी लोग उनसे बेहतर हैं, संस्कृति व बागड़ी भाषा के प्रति लगाव क्यों नहीं पैदा हो पाता है, या हो पा रहा है। बेहतर की तलाश में खुद को हीन मानने वाली स्थिति से कैसे निकाला जा सकता है
आधुनिक तकनीकी कैसे फायदे के बजाय ज्यादा नुकसान करने वाली स्थितियां उत्पन्न कर रही है, रिश्तों के बनने औऱ परिपक्व होने की प्रक्रिया कैसे प्रभावित हुई है, इस पहलू को भी समझने की कोशिश हो सकती है। रिश्तों व आकर्षण को एडोलसेंच एज की तरफ बढ़ती पीढ़ी कैसे लेती है...
काम औऱ पैसे के प्रति झुकाव के उदाहरण कैसे उनको पढ़ाई वाले पहलू से काटते हैं
कैसे बच्चे पढ़ाई से कटकर काम-धंधे में लग जाते हैं और उनकी पढ़ाई खटाई में मिल जाती है

स्कूलों का समीकरण क्या है, प्रमुख चुनौतियां- सिंगल टीचर, मनोवृत्ति, विखरे हुए – रहने की तकलीफ – स्टॉफ की कमी, डाक वर्क का बोझ, शिक्षणेत्तर गतिविधियों में जरूरत से ज्यादा भागीदारी......आदिवासी मन-मानस-स्वभाव-सोच का कैसा असर पड़ता है – काम के प्रति कैसा दृष्टिकोण विकसित होता है जैसे –होली-दीपावली पर कितने भी पैसे मिलें लोग काम छोड़कर घर पर वापस आ जाते हैं, कुछ लोग इसे आर्थिक रूप से पिछड़े होने के बड़े कारण के रूप में देखते हैं तो बाकी सारे लोग इसे उनकी सांस्कृतिक विशेषता व पहचान के रूप में देखते हैं – जैसे गांव, समाज की परंपरा त्योहार, रीति-रिवाज परिवार के प्रति लगाव और प्रेम। सामाजिक ताने-बाने की बुनावट औऱ उसकी गहरी छाप जीवन के हर क्षेत्र में....जुर्माना और समाज से बाहर निकालने की परंपरा का प्रभाव क्यों ऐसा होता है, सगोत्र शादियों के प्रति अस्वस्थ दृष्टिकोण, मरा घोषित करने की परंपरा, मौताड़ा-धापा-नाते-आदि का बच्चों के मन पर प्रभाव। कषि आधारित अर्थव्यस्था- मानवीय श्रम का महत्व-जरूरत बाल श्रम से पूरा करने की मजबूरी-जिससे बच्चों की शिक्षा प्रभावित होती है, स्कूल में उनकी निरंतरता व उपस्थिति- इसके अलावा काम करने का दबाव- घर-गांव छोड़कर बाहर निकलने का दबाव – शोषण की स्थितियों का सामना- शारीरिक-मानसिक – इसका बालमन पर क्या प्रभाव पड़ता है- बालिका शिक्षा की स्थिति- चुनौतियां- व्यावहारिक समस्याएं व समाधान, राजस्थान के बाकी हिस्सों से अलग स्थिति इत्यादि। महिला सशक्तीकरण व पंचायत की भूमिका – पंचायत स्तर पर शिक्षा समिति आदि का गठन आदि तमाम विषयों पर काफी कुछ सोचने की जरूरत है।  

लिखने के लिए. योजनाएं मत बनाओ...लिखो !

लिखने के लिए योजनाएं मत बनाओ लिखो। लिखने की लिए मन की तैयारी में ज्यादा वक़्त न लेकर लिखना शुरू कर दें। जब तक पहल नहीं होती, चिंतन चालू रहता है और लिखने का काम रुका रहता है। लेखन और चिंतन का साथ-साथ चलना ही बेहतर है। दोनों का एक दूसरे के समानांतर चलना बेहतर है। बजाए इसके कि सिर्फ चिंतन चलता रहे। लिखने का कोई समय निश्चित हो तो बेहतर है। इससे लिखने की तैयारी में ज्यादा वक़्त जाया नहीं होता। 

लिखने का समय हर किसी के लिए अपनी सहूलियत के अनुसार निश्चित हो सकता है। किसी को सुबह लिखना अच्छा लगता है। तो किसी को शाम को तो कोई-कोई कभी भी फुरसत के लम्हों में लिखने का काम करता है। सबसे खास बात कि लिखना जिनका प्रोफेशन हो, उनको तो लिखने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। विचारों को लिपिबद्ध करते रहने से लिखने के समय रफ़्तार काफी तेज होती है। हमें भूमिका बनाने के लिए सामग्री भी आसानी से मिल जाती है। 

जिसके पुर्नलेखन और मामूली फेरबदल से लिखने के सफर को आगे बढ़ाया जा सकता है। रचनात्मक लेखन के लिए लोग इंटरनेट से अलग रहने की सलाह देते हैं। लिखते समय एकाग्रता की मौजूदगी बाकी बाधाओं पर पार पा लेती है। लेकिन लिखते समय कई विचारों के साथ संवाद से लिखने का प्रवाह प्रभावित होता है। यहां तक कि अगर हम कोई पैराग्राफ लिखते समय बीच में उठकर कोई काम करने और किसी से बात करने में मशगूल हो जाएं तो वापस लौटक उस कड़ी को खोजना मुश्किल हो जाता है। लगातार लिखने के क्रम में एक श्रृंखला सी बनती जाती है। जो एक बार टूटने पर मुश्किल से जुड़ती है। इसके लिए सतत अभ्यास के माध्यम से विचारों के क्रम को व्यवस्थित करनें। भूमिका, विस्तार व अंतिम पैराग्राफ लिखने की कला सीखी जा सकती है। लिखने के लिए लगातार पढ़ते रहने की जरूरत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। हम लिखने की प्रक्रिया में शब्दों के इस्तेमाल का हुनर सीखते हैं। पढ़ने की प्रक्रिया में शब्द भंडार में इज़ाफा करते हैं। शब्दों की संपन्नता विचारों को सटीक तरीके से कहने में मददगार होती है। 

वही लिखना जिससे हम जुड़ाव महसूस करते हों। इससे बाकी लोग हमारे लेखन से जुड़ते हैं। जिस विचार से हम इत्तेफाक रखते हैं। उस पर लिखने के लिए हमें शब्दों की तलाश में उलझना नहीं पड़ता। विषय का फैसला होने के बाद शब्दों का सिलसिला अपने आप बनता चला जाता है। मन की बात शब्दों में ढलकर पन्नों पर विखरने लगती है। लिखने के दौरान विचारों को व्यवस्थित करना जरूरी है। इसके लिए हर किसी की अपनी स्टाइल हो सकती है। हमें अपनी शैली विकसित करनी चाहिए। ताकि हम अपनी बात को व्यवस्थित तरीके से कह सकें। 

लिखने से पहले जो आप लिखने वाले हैं उसकी रूपरेखा बना लेना जरूरी है। जो हम कहना चाहते हैं, वह हमारे मन में जितना स्पष्ट होगा, हमारे लेखन में भी उसकी स्पष्टता भी साफ-साफ दिखाई पड़ती है। कोई विचार मन में कौंधता है। लिखते-लिखते विचार की कटाई-छंटाई होती रहती है। हो सकता है कि हम जिस निष्कर्ष पर जाने वाले थे। उससे कोई अलग निष्कर्ष भी निकल सकता है। लेकिन रूपरेखा बनाने से लिखने की प्रक्रिया में भटकाव की गुंजाइश कम हो जाती है।

मन में जो भी बात आ रही हो। शीघ्रता के साथ उसे लिखना बहुत जरूरी है। यह विचारों को लिपिबद्ध करने का बेहतर तरीका है। इससे मुख्य बिंदुओं को चिन्हित करने में मदद मिलती है। जिसके आसपास विचार करते हुए, फिर आगे लिखे हुए को विकसित किया जा सकता है। लिखते समय कोई फैसला मत कीजिए कि खराब लिख रहे हैं, बेहतर लिख रहे हैं, बस लिख डालिए। लिखने का काम पूरी होने के बाद लिखे हुए को फिर से देखते हुए, पहले से लिखे हुए को बेहतर बनाने का काम किया जा सकता है। 

लिखे हुए को दोबारा पढ़ना, बोलकर पढ़ना, गलतियों को बारीकी से देखना। लिखे हुए को किसी दोस्त से साझा करना लिखे हुए को और बेहतर बनाने में काफी मददगाक हो सकता है। अपने लिखे हुए को दोबारा पढ़ने का अभ्यास लेखन की गुणवत्ता को बढ़ाने मे निःसंदेह सहायका होता है। लिखने के बारे में पढ़ने के बाद लगता है कि लिखने के बारे में काफी कुछ लिखा जा सकता है। लेकिन हाल फिलहाल इतना ही बाकी फिर लिखते हैं।


Thursday, 30 May 2013

फेलोशिप डेज...


जीवन के सफर में कभी-कभी वर्तमान अतीत के लम्हों में झांकने का सबब बन जाता है। आज का दिन भी कुछ ऐसा ही था, फेलोशिप के पांचवे बैच के साथियों ने विदाई के लम्हों जैसा माहौल बनाकर बीते दिनों की याद ताजा कर दी।

जब मैं पहली बार फेलोशिप के सफर का हिस्सा बनने के लिए चंद्रपुर में बैग लेकर दो जुलाई को पहुंचा था। वहां सलमान और प्रत्यूष से मिला। हमारे बाकी साथी किसी नाटक की तैयारी कर तरहे थे। प्रवीण मुझे नाटक में हिस्सा लेने के लिए बुलाने आया था।

चंद्रपुर रेलवे स्टेशन पर मुझे रिसीव करने के लिए श्रद्धा, जनार्दन और संदीप भाई आए हुए थे। आज की विदाई में उनमें से संयोग से एक व्यक्ति हमारे साथ मौजूद थे। उनका नाम जनार्दन साल्वे है। संयोग से वे तमाम जगहों पर घूमते हुए हमारे ब्लॉक में आकर टिके। उनकी मौजूदगी हमें अच्छी लगी कि चलो ंकोई तो हमारे साथ है, जिसे हम फेलोशिप के पहले दिन से जानते हैं।  इसके अलावा हमारे बाकी साथी शशी शेखर, अज़हर जहीर, विशाल, सुमिता, मयूरी भी मौजूद थे। 

अभी हाल में दिल्ली में प्रत्यूष से मिलने का मौका मिला, तो फेलोशिप के बीते दिनों की चर्चा हो रही थी कि फेलोशिप में हमनें जो सीखा है, उसे अपने व्यवहार का हिस्सा बनाते हुए कैसे अपने कार्यक्षेत्र में लोगों से व्यवहार करना है ? ताकि हम अपनी छाप लोगों पर छोड़ पाएं। उन्होनें कहा कि आगे का सफर कापी चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि वास्तविक जीवन का संघर्ष तो अब शुरु होगा। फेलोशिप में तो कंडीशंड लाइफ होती है, जहां हम विभिन्न परिस्थितियों में खुद को देखते-परखते हैं।

वहां बाकी साथी भी हमारे जैसी प्रक्रिया से गुजर रहे होते हैं, इसलिए वहां पर समन्वय स्थापित करना और आगे बढ़ना आसान होता है। लेकिन वास्तविक  और प्रोफेसनल ज़िंदगी में रोज हमारा सामना नए सवालों से होता है। जिसके लिए हमको काफी तीव्रता से और त्वरित गति से फैसले लेने होते हैं। ऐसे माहौल में हमारी सीख और समझ की परीक्षा होती है। जिसके लिए सतत प्रयास करते रहने की जरुरत है। ताकि अपनी समझ साफ होती रहे और व्यवहार में परिमार्जन होता रहे। 

आज की बातचीत में नए साथियों नें हमसे सुझाव और यादगार अनुभवों पर अपनी बात रखने का मौका दिया। तो मेरा जवाब था कि फेलोशिप में हमने सीखा है कि सुझाव बिना मांगे नहीं देने चाहिए और दूसरी बात कि सुझाव देने के साथ-साथ ग्रहण करने की भी चीज है। मैनें कहा कि तथ्यों को स्वीकार करिए कि स्कूल में इतने कमरें हैं, इतने बच्चे हैं, इतने अध्यापक हैं, इतने संसाधन हैं, प्रधानाध्यापक जी कैसे हैं और रिश्ते वाले पहलू पर नए सिरे से अपना अनुभव बनाने की कोशिश करिए। वहां पर हमारे विचारों की व्यक्तिनिष्ठता (सबजेक्टीविटी) से आप लोग आजाद रहिए, बस यही बात मौखिक और लिखित रुप में कहनी है। समय और परिस्थिति के अनुसार रिश्ते बदलते हैं, व्यक्ति में बदलाव होते हैं। इस बात को ध्यान में रखते हुए अपना काम करते रहिए। लोगों को साथ लेकर चलिए। लेकिन ध्यान रहे कि अंततः एक टीम के साथ-साथ बेहतरीन खिलाड़ी के रूप में अपनी पहचान बनाने का प्रयास करना है।

इसके बाद फेलोशिप में संयुक्त रुप से पत्रिका निकालने के पहले प्रयासों के ऊपर बात हुई। नए साथी चाहते हैं कि  कि उसको आगे लेकर जाएं। ताकि अपने लिखने के कौशल का जमीनी अनुभवों को लिपिबद्ध करने में इस्तेनाल कर सकें ताकि बाहर आदिवासी अंचल के बारे में बनी समझ को लोगों के साथ साझा कर सकें। इसके ऊपर भी बात हुई कि कैसे ब्लॉग जैसे माध्यमों का उपयोग करते हुए, लिखने के सफर को आगे बढ़ाया जा सकता है। 

पत्रिका निकालने के दिनों की व्यस्तता से फेलोशिप के सबसे यादगार पलों की स्मृति हो आयी, जब मैंनें खुद पहल करते हुए किसी काम को सफलता के साथ अंजाम तक पहुंचाया। वह भी निर्धारित समय सीमा के भीतर। कुछ साथियों के लेखों के न छप पाने का अफसोस आज भी है। कहा जा सकता है कि कुछ लम्हे जीवन में सिर्फ एक बार आते हैं, उनका रिटेक और रिमेक नहीं होता। पत्रिका निकालने और पूरा करने का पल ऐसे ही खास पलों में से एक है। उस दिन को याद करके आगे के सफर के लिए प्रेरणा मिलती है कि कैसे अपने सफर को आगे ले जाना है।

आज विशाल से आगे के जीवन सफर पर चर्चा हो रही थी।  आगे की ज़िंदगी को कैसे  देख रहे हो ? तो मेंरा जवाब था कि अभी दो साल तो सिर्फ करियर के ऊपर ध्यान देना है, ताकि आने वाली नई जिम्मेदारियों को सक्रियता के साथ निभा सकूं। इस पहलू पर स्थाइत्व के साथ ही आगे के जीवन में स्थाइत्व के बारे में सोचना है। ताकि न्यून्तम जरुरतों वाली ज़िंदगी का सफर सक्रियता के साथ आगे बढ़ता रहूं और जीवन में नई राहों पर चलते हुए, सफर का इतिहास लिखता रहूं।