भाषा की
कठिनता पर भी काफी सवाल उठ सकते हैं, लेकिन भाषा को सरल बनाने की वकालत सामान्य लोगों की तरफ से उठ रही
है. उस बात को मीडिया में काफी जगह मिल रही है. कुछ साल पहले एक रेडियो रिपोर्ट
सुनी थी, जिसमें
अंग्रेजी बोलने वाले देशों में लोग अंग्रेजी को आसान बनाने की मांग उठा रहे थे. तब
हमारे यहां के लोग हिंदी प्रेम के पाठ में डूबे हुए थे.
हिंदी पढ़ने के लिए
किताबों की जगह कामिक्स मिली, चंपक, नंदन. चंदामामा, लोटपोट मिले. गीता
प्रेस के कल्याण का विशेषांक और तमाम अंक भी मिले. कल्याण की भाषा में कठिनता थी.
संस्कृत पढ़ने के नाते, थोड़ा
बहुत बूझ लेते थे कि माज़रा क्या है, लेकिन आज सोचकर लगता है कि सिवाय कहानियों के मुझे कुछ भी समझ में
नहीं आता था.
देवी-देवताओं
के आपसी प्रेम प्रसंग, आपसी फूट
और लोभ के साथ-साथ युद्ध की कहानियां
पढ़ने को मिली. उनमें पात्रों का अतिरेकी वर्णन तुलसीदास के रामचरित मानस में
पढ़ने को मिला. उससे क्षेत्रिय बोली के नाते सहज रिश्ता तो कायम हो गया. लेकतिन
मानवीकरण की जगह भगवानीकरण से बाद के वर्षों में सहमति जाती रही. बाद एक और दल से
मिलने का मौका मिला,
जिसका
कहना और मानना था कि असली भारत तो कुछ और हो गया है. महान तो वह कई सालों पहले था.
लेकिन तब भी पिछड़ा हुआ था. भोजपुरी बोली में देश की स्थिति परिस्थिति, साहित्य, कला, मनोरंजन, राजनीति पर धाराप्रवाह होने
वाली बातचीत को सुनकर हैरानी हो रही थी कि अरे क्षेत्रिय बोली में इतना सामर्थ्य
है, लेकिन
इसके बारे में तो कभी पुरजोर तरीके से किसी ने आवाज नहीं उठाई.
लोग यही
कहते रहे किु हिंदी देश को जोड़ने वाली सेतु है. अतः इस भाषा को पूरे देश के लोगों
को सीखना चाहिए. दक्षिण के लोगों का हिंदी थोपने के प्रति जो प्रतिक्रिया हुई, वह वहां के राजनीतिज्ञों के
माध्यम से लोगों के रगों में उत्तर और मध्य भारतीय लोगों की नसों में बहने
वाले हिंदी प्रेम के ठीक विपरीत थी. एक तरफ के लोगों को हिंदी भाषा से जितना लगाव
था, दूसरी
तरफ के लोगों के मन में उसी के बराबर नफ़रत ने जगह बना ली.
बनारस में काशी
विश्वनाथ के दर्शन को दक्षिण भारत से बहुसंख्यक लोग आते हैं. वहां की भीड़ में हम
भी घुस जाते थे, ताकि
दर्शन करें और पर्व के आनंद का भागीदार बने. वहां हमने दक्षिण के लोगों के चेहरों
की तनी हुई भृकुटियां देखीं....वे हिंदी में लिखे साइन बोर्ड - विज्ञापन पट्टिका
(हिंदी प्रेमी आहत न हो जायं) कह रहे थे....ईईईईईईईई, इतनी हिंदी.
उस समय
मैं बीए की पढ़ाई कर रहा था. एक आदर्शवादी, जोश से भरे, अपनी बात
साबित कर देने वाले युवाओं की सारी खूबियां मुझमें भी थीं. लेकिन अगर मुझे बचपन से
अंग्रेजी के अच्छे अध्यापक मिले,
जिनकी अंग्रेजी और हिंदी दोनों बेहतर थी. कुछ लोगों की हिंदी तो वाकई
धारा प्रवाह थी. वे अध्यापक बच्चों से संवाद करते थे. अंग्रेजी को हिंदी का दोस्त
मानकर पढ़ाते थे.
दोनों के रिश्तों को न समझ पाने वालों को अपनी बात कहने के तरीके
से मोह लेते थे. आठवीं घंटी में अंग्रेजी का पीरियड होता था. लेकिन कोई भी
बच्चा ूबागकर नहीं जाता था,
क्योंकि उन्हे पता था कि आज कुरेशी सर विलियम वर्डसवर्थ की लूसी ग्रे
पढ़ाने वाले हैं. आज कक्षा में भयानक तूफान आएगा, और लूसी उसमें फंस जाएगी.
उसके
माता-पिता उसे परेशान होकर खोजेंगे, लेकिन उसकी कोई पता नहीं मिलेगा. बर्फीले तूफान की कल्पना से हमारे
रोम-रोम कांप उठते थे. जबकि हमारे यहां हांड़ कंपा देने वाली कड़ाके की सर्दी
पड़ती है. लेकिन बर्फीले तूफान का नज़ारा तो, गुप्तकाशी उत्तरांचल जाने के बाद महसूस किया कि कि ऐसी भी कोई चीज होती
है. मैनें अंग्रेजी बोलने की कोंचिग में बात करना सीखा.
अपनी बात को आत्मविश्वास
के साथ रखना सीखा. एक समय तक मानसिक अनुवाद का ऐसा चश्का था कि कोई भी हिंदी की
किताब हो, उसे
पढ़ना और अंग्रेजी में अनुवाद करके श्रोताओं तक पहुंचा देना, मुझे दाएं,-बाएं हाथ का खेल लगता था.
लेकिन इस सहजता को चीज़ों की गहराई में उतरने वाले जिज्ञासु मन ने चुनौती दी. सफर
आगे बढ़ा.
बहुत
सारे मुद्दों पर पढ़ना शुरु किया. मैनेजमेंट के दौर में बेहतर अंग्रेजी न जानने
वाले छात्र के रुप में लगता था कि कुछ कमी है.जैसे किसी जानवर के पूंछ न हो. कॉल
सेंटर के पहले नौकरी टाइप साक्षात्कार और बाद में लखनऊ के एक एमबीए कराने वाले
कॉलेज के साक्षात्कार में सुनने को मिला कि आपकी अंग्रेजी अच्छी नहीं है. इसलिए
आपको प्रवेश नहीं दे सकते. वहां के प्रमुख ने कभी बीएचयू से योग का सर्टिफिकेट
कोर्स किया था, उन्होनें
अपने परिचय में उसे भी शामिल किया था.
तो लगा कि शायद बीएचयू के लिए उनके मन में
कोई सॉफ्ट कार्नर होगा कि भाषा ही तो सीखनी है, सीख जाएगा. लेकिन बाजार के अंदाज को देखते हुए, उनको लगा होगा कि बाजार में
इसकी बोली कम लगेगी, इसलिए
किसी और को ले लो, जो ऊंचे
दामों पर बिके ताकि प्लेसमेंट रिपोर्ट और बेहतर हो....ताकि अगले साल से और कमाई हो
सके.
विरोधाभाषी
संयोग से वहीं पर मैनें भोपाल के लोकप्रिय रुप से विवादास्पद माखनलाल चतुर्वेदी
विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए परीक्षा दी. मेरा नाम चयन सूची में भी आया.
वेटिंग लिस्ट में भी रहने का सुख भोगा. अंत में प्रवेश भी मिला. उस समय साहित्य और
राजनीति में पकड़ रखने वाले भी पत्रकारिता में प्रवेश को आतुर थे. एक साथी तो संघ
की विचारधारा के प्रति समर्पित थे.
तो दूसरे मित्र वामपंथी विचारधारा का झंडा
बुलंद कर रहे थे. हम वहां पर न्युट्रल सदस्य के रुप में जाने जाते थे. जहां पर लगा
कि अपनी बात रखनी चाहिए, स्टैण्ड
लेना चाहिए, लिया.
बिना किसी विचार की धारा का खूंटा गाड़े, उसकी सार्वजनिक घोषणा किए, अपना काम करते रहे. कभी-कभी तो साथियों से इस बात पर बात भी हुई कि
आप खुद को किस धारा का मानते हैं....तो लगा कि वे जिस धारा की बात कर रहे हैं.
उसमें बहने का हुनर अपने पास है नहीं.
हम तो
सीधे-सादे इंसान हैं, जिनको
गांव वाले कमजोर समझकर गांधी कहकर बुलाते थे. उनकी नज़रों में गांधी का यही मतलब
था. संयोग से गांधी फेलोशिप मिली तो बामपंथी धारा के पत्रकार और कुछ वरिष्ठ
साथियों का कहना था कि गांधीवाद पर तो इनकी पकड़ है. उनकी भी गांधी को समझने के
ऊपर पकड़ पर मुझे संदेह है, लेकिन
उनकी बौद्धिक जड़ता के बारे में कोई संदेह नहीं था.
अभी के बारे में कुछ कहना कठिन
है. लेकिन संयोग से कुछ ऐसे वरिष्ठ साथी मित्र मिले, जिन्होनें कहा कि पता नहीं लोग विचारधारा कैसे तय
कर लेते हैं, इस उम्र
में तो जीवन के छोटे-मोटे फैसले करना भी अपने वश की बात नहीं लगती. उनसे संवाद में
पत्रकारिता के बारे में सवाल-जवाब से सीखा है. उनका कहना था कि कंटेट. फार्म और
शैली का समन्वय जरुरी है ताकि किसी विषय को रोचकता के साथ प्रस्तुत किया जा सके.
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